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________________ सर्वज्ञत्ववादः ८६ सर्गिपदार्थान्तरोपलम्भात् क्वचित्तत्सिद्धः । न चात्राप्ययं न्यायः समानस्तत्संगिण एव कस्यचिदभावात्, अन्यथा सर्वत्र तदभावविरोधो घटादिवत् । तन्न प्रत्यक्षेणाधिगम्यस्तदभावः। नाप्यनुमानेन; विवादाध्यासितः पुरुषः सर्वज्ञो न भवति वक्त त्वाद्रथ्यापुरुषवदित्यनुमाने हि प्रमाणान्तरसंवादिनोऽर्थस्य वक्त त्वं हेतुः, तद्विपरीतस्य वा स्यात्, वक्त त्वमानं वा ? प्रथमपक्षे विरुद्धो हेतुः; प्रमाणान्तरसंवादिसूक्ष्माद्यर्थवक्त त्वस्याशेषज्ञे एव भावात् । द्वितीयपक्षे तु सिद्धसाधनम्; तथाभूत जाना था पुनः घट रहित अकेला भूतल दिखाई दिया अतः वहां घटका अभाव सिद्ध होता है, ऐसी बात सर्वज्ञ के विषय में नहीं है, वहां एक पुरुषका संसगि ज्ञान नहीं है, जो प्रत्यक्ष के निवर्तमान होने से सर्वज्ञ का अभाव कर देवे यदि एक संसर्गिज्ञान होना स्वीकार करेंगे तो सर्वत्र सर्वज्ञ का अभाव होगा ही नहीं, जैसे घट आदिका नहीं होता। इस प्रकार सर्वज्ञ का अभाव प्रत्यक्ष से जाना जाता है ऐसा कहना सिद्ध नहीं हुआ । ___ अनुमान प्रमाण से सर्वज्ञ का अभाव करना भी शक्य नहीं, अब इसी विषय में चर्चा करते हैं -विवादाध्यासित पुरुष सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि वह बोलता है, जैसे रथ्यापुरुष, यह अनुमान सर्वज्ञका अभाव सिद्ध करता है ऐसा अनुमान मीमांसक उपस्थित करे तो इस अनुमान का हेतु वक्तृत्व अर्थात् बोलना है, सो वक्तृत्व किस प्रकार का है ? प्रमाणांतरसे संवादक ऐसा सत्यार्थ विषयक वक्त त्व है, या इससे विपरीत वक्त त्व है, अथवा वक्त त्व मात्र है ? प्रथम पक्ष कहो तो हेतु विरुद्ध होगा, क्योंकि जिसमें प्रमाणांतर से संवादकता है ऐसे सूक्ष्मादि पदार्थों के विषय में वक्त त्व तो सर्वज्ञ में ही होगा, मतलब सत्यार्थ वचन बोलता है अतः सर्वज्ञ नहीं ऐसा कह ही नहीं सकते, सत्यार्थ वचन वाले में तो सर्वज्ञपने की सिद्धि ही होती है, सो वक्त त्व हेतु दिया था सर्वज्ञाभाव के लिए और उल्टे उसने सर्वज्ञ के सद्भाव को सिद्ध किया अतः यह वक्त त्व हेतु विरुद्ध हुआ। द्वितीय पक्ष-विपरीत वचन बोलता है अतः यह पुरुष सर्वज्ञ नहीं है ऐसा कहें तो सिद्धसाधन है, क्योंकि हमने भी इस तरह का विपरीत वचन बोलने वाले पुरुष को असर्वज्ञ ही माना है। वक्त त्व सामान्य को हेतु बनाया है ऐसा मानें तो साध्य से विपरीत सर्वज्ञ के साथ भी इसकी अनुपलब्धि सिद्ध नहीं हो सकेगी अर्थात् सर्वज्ञ में वक्त त्व सामान्य का विरोध है ऐसा सिद्ध नहीं होता, क्योंकि सर्वज्ञ और वक्त त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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