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________________ सर्वज्ञत्ववादः ८५ अथोच्यते-'पूर्व पश्चाद्वा यदि क्वचित्कदाचिन्निखिलदर्शिनो विज्ञानं विश्रान्तं तर्हि तावन्मात्रत्वात्संसारस्य कुतोऽनाद्यनन्तता? अथ न विश्रान्तं तर्हि नानेकयुगसहस्रणापि सकलसंसारसाक्षात्कररणम्' इति; तदप्युक्तिमात्रम्; यतः किमिदं विश्रान्तत्वं नाम ? किं किञ्चित्परिच्छेद्याऽपरस्यापरिच्छेदः, सकलविषयदेशकालगमनासामर्थ्यादवान्तरेऽवस्थानं वा क्वचिद्विषये उत्पद्य विनाशो वा ? न तावदाद्यविकल्पो युक्तः; अनभ्युपगमात् । न खलु सर्वज्ञज्ञानं क्रमेणार्थपरिच्छेदकम् युगपदशेषार्थोद्योतकत्त्वात्तस्येत्युक्तम् । द्वितीयविकल्पोप्यनभ्युपगमादेवायुक्तः । न हि विषयस्य देशं कालं वा गत्त्वा ज्ञानं तत्परिच्छेदकमिति केनाप्यभ्युपगतम्, अप्राप्यकारिणस्तस्य क्वचिद्गमनाभावात् । केवलं यथाऽनाद्यनन्तरूपतया समाधान:- इस शंका का परिहार पहले हो चुका है, मंत्रादि से संस्कारित चक्षु आदि के द्वारा आतीतादि का ग्रहण होता है, तथा व्याप्ति ज्ञान के द्वारा भी वर्तमान में वस्तु का सन्निधान नहीं होते हुए भी काल विप्रकृष्ट वस्तु का ग्रहण होता है । व्याप्ति ज्ञान के दृष्टांत से यह स्पष्ट हो जाता है कि जानते समय उस वस्तु का निकट होना जरूरी नहीं है। ___ शंका:-पहले या पीछे यदि कदाचित् उस सर्वज्ञ का ज्ञान किसी विषय में विश्रांत हो जायगा तो संसार भी उतना रह जायगा उसमें अनादि अनंतता सिद्ध नहीं होगी ? तथा यदि सर्वज्ञ का ज्ञान विश्रांत नहीं होता है तब तो अनेक सहस्रकाल व्यतीत होने पर भी सारे संसार का जानना नहीं होगा, संसार तो अनंत है ? समाधान:- यह कथन अयुक्त है- विश्रांत होना किसे कहते हैं ? कुछ को जानकर शेष को नहीं जानना, संपूर्ण देश संपूर्ण काल संबंधी विषयों के निकट गमन की शक्ति नहीं होने से बीच में रुक जाना, अथवा किसी विषय में उत्पन्न होकर नष्ट होना ? प्रथम विकल्प का विश्रांत ठीक नहीं, हमने ऐसा माना ही नहीं कि कुछ को जानकर अन्य को नहीं जानता । तथा सर्वज्ञ का ज्ञान क्रम से वस्तु को नहीं जानता है जिससे कि कुछ को जानकर अन्य को नहीं जान सकेगा, वह ज्ञान तो एक साथ अशेष पदार्थों को प्रकाशित करने वाला है। दूसरा विकल्प भी स्वीकार नहीं करने से अयुक्त है, वस्तु के पास ज्ञान जाता है या काल के पास जाता है फिर उसको जानता है ऐसा किसी भी वादी प्रतिवादी ने नहीं माना है, ज्ञान तो अप्राप्यकारी है वह कहीं पर नहीं जाता है । ज्ञान का काम तो इतना है कि पदार्थ जैसे अनादि अनंतरूप अवस्थित है उसी रूप से उनको जानना। तीसरा विकल्प भी अयुक्त है, किसी विषय में उत्पन्न हुअा ज्ञान नष्ट नहीं होता है क्योंकि ज्ञान आत्मा का स्वभाव है ( वस्तु का स्वभाव नहीं है ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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