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________________ ७० प्रमेयकमलमार्तण्डे श्चेद्वयभिचारी सपक्षेतरयोर्वर्तनात् । विमत्यधिकरणभावापन्नधमिधर्मत्वे धूमवत्त्वादेः सर्वं सुस्थम् । यथा चाचलस्याचलत्वादिना प्रसिद्धसत्ताकस्य सन्दिग्धाग्निमत्त्वादिसाध्यधर्मस्य धर्मो हेतुर्न विरुध्यते, तथा प्रसिद्धात्मत्वादिविशेषणसत्ताकस्याप्रसिद्धसर्वज्ञत्वोपाधिसत्ताकस्य च धर्मिणो धर्मः प्रकृतो हेतुः कथं विरुध्येत? यदपि अविशेषेण सर्वज्ञः कश्चित्साध्यते विशेषेण वेत्याद्यऽभिहितम्; तदभ्यभिधानमात्रम् ; सामान्यतस्तत्साधानात्तत्रैव विवादात् । विशेषविप्रतिपत्तौ पुनईष्टेष्टाविरुद्धवाक्त्वादर्हत एवाशेषार्थ बुद्धिमान है कि जो अग्निमान पर्वत का धर्म रूप हेतु को मानकर उसमें अग्निमानत्व नहीं होगा ? अर्थात् पर्वत अग्निवाला सिद्ध है तो उसका धर्म धमत्व भी सिद्ध है, अतः उस पर हेतु से अग्नित्व सिद्ध करना बेकार है। तथा धूमत्व हेतु अग्निरहित पर्वत का धर्म है तो विरुद्ध होगा क्योंकि साध्य को विरुद्ध सिद्ध करने वाला है ? अग्निमान और अनग्निमान दोनों प्रकार के पर्वतों का धर्मत्व रूप धूमत्व हेतु है तो व्यभिचारी बन बैठेगा? क्योंकि सपक्ष और विपक्ष दोनों में रह गया। यदि किसी एक विवाद ग्रस्त धर्मी स्वरूप पर्वत का धर्म धूमत्व हेतु है ऐसा मानते हैं तब तो सब ठीक हो जाता है । जिस प्रकार पर्वत स्थिरपना, स्थूलपना आदि रूप अपने स्वरूप से प्रसिद्ध है उसमें सन्दिग्ध अग्निमान है उसको पक्ष बनाते हैं तो पक्ष का धर्म रूप जो धमत्व हेतु है वह विरुद्ध नहीं पड़ता है, क्योंकि पर्वतरूप पक्ष अपने पर्वत पने से तो प्रसिद्ध सत्ता वाला ही है, बिल्कुल उसी प्रकार सर्वज्ञत्व की सिद्धि में आत्मत्व, अमर्तत्व आदि विशेषणों से प्रसिद्ध सत्ता वाला पुरुष विशेष है, उसमें केवल सर्वज्ञपना संदिग्ध है, उसको साध्य बनाकर "तद् ग्रहण स्वभावत्वे सति प्रक्षोण प्रतिबंध प्रत्ययत्वात्" हेतु को प्रयुक्त करते हैं तो यह हेतु किस प्रकार विरुद्ध पड़ेगा? अर्थात् नहीं पड़ सकता है। विशेषार्थः-सर्वज्ञ सिद्धि में जो कोई हेतु देवे तो वह धर्मी असिद्ध होने से प्रसिद्ध ही कहलायेगा ऐसा मीमांसक ने कहा था सो उसको आचार्य ने समझाया कि ऐसा कहने से प्रसिद्ध प्रसिद्ध धूमत्वादि हेतु प्रसिद्ध होवेंगे फिर तो अनुमान नामक चीज ही खतम हो जायगी। "यहां पर्वत पर अग्नि है क्योंकि धूम है" इस जगत प्रसिद्ध अनुमान में पर्वत धर्मी है वह पर्वतपने से तो सिद्ध ही है और अग्निमानपने से प्रसिद्ध है सो इतने मात्र से उसे कोई असिद्ध धर्मी नहीं मानते, उसी प्रकार कोई आत्मा सकल पदार्थों का साक्षात करने वाला है इत्यादि अनुमान में पक्ष या धर्मी "कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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