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________________ सर्वज्ञत्ववादः साध्यसाधनयोश्च प्रतिबन्धो न प्रत्यक्षानुमानाभ्यां प्रतिज्ञायते येनोक्तदोषानुषङ्गः स्यात्, तख्यिप्रमाणान्तरात्तत्सिद्ध। यच्चाप्रतिपन्नपक्षधर्मत्वो हेतुर्न प्रतिनियतसाध्यप्रतिपत्त्यङ्गमित्युक्तम् । तदप्यपेशलम् ; न हि सर्वज्ञोत्र धमित्वेनोपात्तो येनास्यासिद्ध रयं दोषः। किं तर्हि ? कश्चिदात्मा। तत्र चावि प्रतिपत्तः । न चापक्षधर्मस्य हेतोरगमकत्वम् ; "पित्रोश्च ब्राह्मणत्वेन पुत्रब्राह्मणतानुमा। सर्वलोकप्रसिद्धा न पक्षधर्ममपेक्षते ।।" इति स्वयमभिधानात् । यदप्यक्तम्-सत्तासाधने सर्वो हेतुस्त्रयीं दोषजाति नातिवर्तत इति; तत्सर्वानुमानोच्छेदकारित्वादयुक्तम् ; शक्यं हि वक्त धूमत्वादिर्यद्यग्निमत्पर्वतधर्मस्तदाऽसिद्धः को हि नामाग्निमत्पर्वतधर्म हेतुमिच्छन्नग्निमत्त्वमेव नेच्छेत् । तद्विपरीतधर्मश्चेद्विरुद्धः; साध्यविरुद्धसाधनात् । उभयधर्म अतः वह असिद्ध नहीं तथा सर्वज्ञ रूप साध्य के साथ हेतु का अविनाभाव प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध होता है इस तरह हम स्वीकार नहीं करते हैं, हम तो तर्क नामा एक प्रथक प्रमाण मानते हैं उसी के द्वारा अविनाभाव संबंध जाना जाता है अतः वे अनवस्थादि दिये हुए दोष लागू नहीं हो सकते। जिस हेतु का पक्ष धर्मत्व नामा गुण नहीं जाना है वह प्रतिनियत साध्य को सिद्धि का कारण नहीं हो सकता है ऐसा कहा वह गलत है, हमने इस अनुमान में सर्वज्ञ को धर्मी नहीं बनाया है जिससे उसकी प्रसिद्धि से यह दोष आवे । हम तो किसी एक आत्मा को पक्ष बना रहे हैं, उसमें किसी का विवाद नहीं है, तथा ग्राप हेतु में पक्ष धर्मत्व नहीं होना दोष बता रहे हैं वह भी ठीक नहीं है, पक्ष धर्मत्व रहित हेतु भी अगमक नहीं होता, माता पिता के ब्राह्मण होने से पुत्र की ब्राह्मणमता का अनुमान हो जाता है यह सर्व लोक प्रसिद्ध बात है यहां पक्ष धर्मत्व की अपेक्षा नहीं है। ऐसा आप स्वयं मानते हैं। और भी जो कहा है कि सर्वज्ञ की सत्ता सिद्ध करने में जो भी हेतु होंगे वे सभी असिद्धादि तीन दोषों से रहित नहीं होवेंगे? सो यह कथन संपूर्ण अनुमानों का विच्छेद करने वाला होने से प्रयुक्त है, कोई कह सकता है कि धूमत्व आदि हेतु यदि अग्निमान पर्वत का धर्म है तो वह असिद्ध दोष युक्त होगा ? क्योंकि ऐसा कौन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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