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________________ ६४ प्रमेयकमलमार्तण्डे तत्प्रामाण्येऽशेषार्थविषयज्ञानसम्भवः, तत्सम्भवे चाशेषज्ञस्य तथाभूतशब्दप्रवेतृत्वमिति । अभ्युपगम्यते च प्रेरणाप्रभवज्ञानवतो धर्मज्ञत्वम् , "चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्म व्यवहितं विप्रकृष्टमित्येवंजातोयकमर्थमवगमयितुमलं नान्यत् किंचनेन्द्रियादिकम्" [ शाबरभा० १।११२ ] इत्यभिधानात् । अनुमानाविभूतमित्यप्यसङ्गतम् ; धर्मादेरतीन्द्रियत्वेन तज्ज्ञापकलिङ्गस्य तेन सह सम्बन्धासिद्धरसिद्धसम्बन्धस्य चाज्ञापकत्वात् । किञ्च, अनुमानेनाशेषज्ञत्वेऽस्मदादीनामपि तत्प्रसङ्गः, 'भावाभावोभयरूपं जगत्प्रमेयत्वात्' भी उसी रूपादि का ग्राहक होगा। अभ्यास से कहना भी मनोरथ मात्र है। अभ्यास तो किसी व्यक्ति के प्रतिनियत शिल्पकला आदि में उपदेश या ज्ञान से होता है, किंतु संपूर्ण विषयों का न तो कोई उपदेश ही दे सकता है और न किसी को उससे ज्ञान ही हो सकता है । यदि अशेषार्थ का उपदेश और ज्ञान होता तो अभ्यास का प्रयास ही व्यर्थ ठहरता क्योंकि अशेषार्थ का ज्ञान तो हो चुका है ? तथा इसमें अन्योन्याश्रय दोष भी आता है, अभ्यास से अशेषार्थ का ज्ञान होना और उस ज्ञान से अभ्यास होना इस प्रकार एक की भी सिद्धि नहीं होगी। आगम से धर्मादि को ग्रहण करने वाला ज्ञान होता है ऐसा कहना भी अन्योन्याश्रय दोष युक्त है सर्वज्ञ प्रणीत होने से आगम में प्रामाण्य आने पर तो अशेषार्थ का ज्ञान होना संभव होगा, और उसके संभव होने पर सर्वज्ञ के अशेषार्थ विषय का प्रणेतृत्व सिद्ध हो पायेगा। इस तरह दोनों ही प्रसिद्ध रहेंगे। हम लोग वेद से जिनको ज्ञान हुया है ऐसे ज्ञानी पुरुषों के धर्मज्ञपना तो स्वीकार करते ही हैं, अर्थात् यह बात पहले भी कही थी कि वेद से धर्म अधर्मादि का ज्ञान भले ही होवे किंतु साक्षात् ज्ञान नहीं हो सकता । वेद तो ऐसा पदार्थ है कि वह भूत, भविष्यत, वर्तमान, सूक्ष्म, व्यवहित, विप्रकृष्ट इत्यादि जातीय पदार्थों को जानने में बिलकुल पूर्ण समर्थ है, वेद को छोड़कर अन्य इद्रियादि इस तरह के ज्ञान के कारण नहीं हो सकते, इस तरह शाबरभाष्य में प्रतिपादन किया है। सर्वज्ञ का ज्ञान धर्मादि का ग्राहक है ऐसा जैन कहते हैं उसमें हमने चार प्रश्न किये थे कि सर्वज्ञ का ज्ञान धर्मादि का ग्राहक है सो वह इंद्रिय जनित है, अभ्यास जनित है, आगम जनित है या अनुमान जनित है ? इनमें से पहले के तीनों विकल्प खण्डित हुए। अब चौथा विकल्प = अनुमान जनित ज्ञान धर्मादि का ग्राहक है, सो यह कथन भी असत् है, धर्मादिक अतीन्द्रिय पदार्थ हैं, उनका ज्ञायक कोई हेतु हो नहीं सकता, क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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