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प्रमेयक मलमाण्डे
संयुक्तसमवेत समवाय नामक तीसरा सन्निकर्ष कब होता है ? सो यह
बताते हैं
जब चक्षु के द्वारा घट के रूप के रूपत्वसामान्य का ग्रहण होता है तब चक्षु तो इन्द्रिय है, रूपत्व सामान्य अर्थ है- इन दोनों का सन्निकर्ष संयुक्तसमवेतसमवाय कहलाता है, क्योंकि चक्षु से संयुक्त घट में रूप समवेत है और उसमें रूपत्व सामान्य का समवाय है ।
कदा पुनः समवायः सन्निकर्ष: ?
यदा श्रोत्रेन्द्रियेण शब्दो गृह्यते तदा श्रोत्रमिन्द्रियं शब्दोऽर्थः अनयोः सन्निकर्षः समवाय एव । कर्णशष्कुल्यवच्छिन्न नमः श्रोत्रं, श्रोत्रस्याकाशात्मकत्वाच्छब्दस्य चाकाशगुणत्वाद् गुणगुणिनोश्च समवायात् ॥
समवाय नामका चौथा सन्निकर्ष का भेद कब होता है ? जब कर्णेन्द्रिय द्वारा शब्द को ग्रहण किया जाता है तब यह समवाय नामका चौथा सन्निकर्ष का भेद होता है, अर्थात् कर्ण तो इन्द्रिय है और शब्द अर्थ है, इन दोनों का सन्निकर्ष समवाय ही है, क्योंकि कर्ण-विवर से अवच्छिन्न (परिमित - घिरा हुआ) आकाश ही कर्ण कहलाता है, अतः कर्ण आकाशरूप होने से और शब्द आकाश का गुण होने से तथा गुणगुणी का समवाय संबंध होने के कारण श्रोत्र और शब्द का समवाय सन्निकर्ष ही कहलाता है । कदा पुनः समवेतः सन्निकर्ष: ?
“यदा पुनः शब्दसमवेतं शब्दत्वादिकं सामान्यं श्रोत्रेन्द्रियेण गृह्यते तदा श्रोत्रमिन्द्रियं शब्दत्वादिसामान्यमर्थः अनयोः सन्निकर्षः समवेतसमवाय एव श्रोत्रसमवेते शब्दे शब्दत्वस्य समवायात्", समवेतसमवायनामके पांचवें सन्निकर्ष का कथन करते हुए यहां कहा गया है कि जब शब्द में समवेत जो शब्दत्व सामान्य है उसका श्रोत्रेन्द्रिय के द्वारा ग्रहण होता है तब श्रोत्र तो इन्द्रिय है और शब्दत्वादि जाति अर्थ (विषय) है, इन दोनों का सन्निकर्ष समवेत समवाय ही है, क्योंकि श्रोत्र में समवेतशब्द में शब्दत्व सामान्य का समवाय है ।
कदा पुनर्विशेष्य विशेषरण भाव इन्द्रियार्थसन्निकर्षो भवति ?
यदा चक्षुषा संयुक्त भूतले घटा भावो गृह्यते " इह भूतले घटो नास्ति, इति
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