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________________ .. सन्निकर्ष प्रमाणवादपूर्वपक्षः का लक्षण सिद्ध हो जाने पर अब उसके भेद बताते हैं-"प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दा: प्रमाणानि" प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमा, शब्द (आगम ) ये प्रमाण के चार भेद हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण–'साक्षात्कारि प्रमाकरणं प्रत्यक्षम" साक्षात्कार करने वाली प्रमा का जो करण है वह प्रत्यक्ष है, “साक्षात्कारिणी च प्रमा सैवोच्यते या इन्द्रियजा, सा च द्विधा सविकल्पक निर्विकल्पक भेदात् । तस्याः करणं त्रिविधं-कदाचिद् इन्द्रियं, कदाचिद् इन्द्रियार्थसन्निकर्षः, कदाचिद् ज्ञानम्" । साक्षात्कार करने वाली प्रमा इन्द्रिय से उत्पन्न होती है, उसके दो भेद हैं(१) सविकल्पक और (२) निर्विकल्पक । उस प्रमा के करण के तीन भेद हैं-कभी तो उस प्रमा का करण इन्द्रियां होती हैं, कभी इन्द्रिय और पदार्थ का सन्निकर्ष होता है और कभी ज्ञान करण होता है। ___"कदा पुनरिन्द्रियकरणं ? यदा निर्विकल्परूपा प्रमा फलम्-तथाहि-आत्मा मनसा संयुज्यते, मन इन्द्रियेण, इन्द्रियमर्थेन । इन्द्रियाणां वस्तु प्राप्य प्रकाशकारित्वं नियमात् । ततोऽर्थसन्निकृष्टेनेन्द्रियेण निर्विकल्पकं जात्यादियोजनाहीनं वस्तुमात्रावगाहि किञ्चिदिदमिति ज्ञानं जन्यते । तस्य ज्ञानस्येन्द्रियकरणं, छिदया इव परशुः । इन्द्रियार्थसन्निकर्षो ऽवान्तर व्यापारः छिदा करणस्य परशोरिवदारुसंयोगः । निर्विकल्पं ज्ञानं फलं परशोरिव छिदा। इस प्रकार प्रत्यक्ष के तीन तरह के करण ( इन्द्रिय, इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष, ज्ञान ) होने पर कौनसा करण कब कार्यकारी होता है, सो बताते हैं जब निर्विकल्परूप प्रमा फल कहलाती है, तब इन्द्रियां करण होती हैं जैसे कि ( पहले ) आत्मा का मन के साथ संयोग होता है, फिर मन का इन्द्रियों के साथ और फिर इन्द्रिय का अर्थ के साथ संयोग होता है, क्योंकि इन्द्रियां वस्तु को प्राप्त करके ही प्रकाशित करती हैं, यह नियम है, इसके पश्चात् अर्थ से सन्निकृष्ट ( संबद्ध ) हुई इन्द्रिय के द्वारा नाम जाति आदि की योजना से रहित, केवल वस्तु का ग्रहण करने वाला “यह कुछ है" इस प्रकार का निर्विकल्प ज्ञान उत्पन्न होता है, उस ज्ञान का करण इन्द्रिय होती है, जिस प्रकार छिदी क्रिया का ( काटने रूप क्रिया का ) कारण परशु ( कुठार ) होता है, इन्द्रिय तथा अर्थ का सन्निकर्ष अवान्तर व्यापार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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