SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सन्निकर्ष प्रमाणवाद पूर्वपक्ष अब यहां पर वैशेषिक मतानुसार सन्निकर्ष प्रमाण का वर्णन किया जाता हैप्रमाण का लक्षण-"प्रमाकरणं प्रमाणं" प्रमा का जो करण है वही प्रमाण है ऐसा कहा है, "अत्र च प्रमाणं लक्ष्यं, प्रमाकरणं लक्षणम्" यहां "प्रमाणं" पद से तो लक्ष्य का निर्देश किया गया है और "प्रमाकरणं" पद से लक्षण का निर्देश किया है, प्रमा किसे कहते हैं ? तो उत्तर में कहा है-“यथार्थानुभवः प्रमा' कि यथार्थ अनुभव को प्रमा कहते हैं, “यथार्थ इत्ययथार्थानां संशय-विपर्यय-तर्कज्ञानानां निरासः, अनुभव इति स्मृतेनिरास: । ज्ञानविषयं ज्ञानं स्मृतिः । अनुभवो नाम स्मृतिव्यतिरिक्त ज्ञानम्" प्रमा के लक्षण में यथार्थ और अनुभव ये दो विशेषण हैं सो यथार्थ विशेषण से अयथार्थ जो संशय-विपर्यय और तर्करूप ज्ञान हैं उनका निराकरण हो जाता है, अर्थात् जो प्रमा संशयादिरूप नहीं है, उसी प्रमा का यहां ग्रहण हुआ है, एवं अनुभवविशेषण से स्मृतिरूप ज्ञान का निरसन हुआ है, क्योंकि पहिले से जिसका विषय जाना हुआ है वह स्मृति कहलाती है, और इससे पृथक् ही ज्ञान अनुभव कहलाता है, जब प्रमा का करण प्रमाण कहलाता है तो करण क्या है यह शंका मनमें हो ही जाती है, अतः करण का लक्षण कहते हैं कि-"साधकतमं करणम्” प्रमा का जो साधकतम कारण हो वह करण है, “सत्यपि प्रमातरि प्रमेये च प्रमानुत्पत्तेरिन्द्रिय संयोगादौ सति अविलंबेन प्रमोत्पत्तेरिन्द्रियसंयोगादेरेव करणं, प्रमायाः साधकत्वाविशेषे ऽप्यनेनैवोत्कर्षेणास्य प्रमात्रादिभ्योऽति शयितत्त्वादतिशयितं साधकं साधकतमं तदेव करणं अत इन्द्रियसंयोगादिरेव प्रमाकरणत्वात्प्रमाणं न प्रमात्रादि" अब प्रमा का अर्थात ज्ञान का साधकतम करण कौन हो सकता है इस पर विचार करते हैं-देखा जाता है कि प्रमाता और प्रमेय के रहते हए भी प्रमा उत्पन्न नहीं होती है, किन्तु इन्द्रियसंयोगादि के होने पर शीघ्र ही प्रमा की उत्पत्ति होती है अतः इन्द्रिय संयोगादि को प्रमा का करण माना है, प्रमा में प्रमाता अादि भले ही साधक हों, किन्तु इस इन्द्रियसंयोगरूप सन्निकर्ष से प्रमा उत्पन्न होती है, इसलिये प्रकृष्ट साधक-अतिशयपने से साधक तो सन्निकर्ष ही है, प्रमाता आदि साधकतम नहीं है यह निश्चित हुया, इस प्रकार प्रमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy