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________________ ३० प्रमेयकमलमार्तण्डे कार्य जननस्वभावतायाः सर्वदा भावात्, तदप्यपेशलम् ; यतः प्रत्ययान्तरसन्निधानेऽपि स्वरूपेणैवास्य कार्यकारिता, तच्च प्रागप्यस्तीति प्रागेवात: कार्योत्पत्तिः स्यात् । प्रत्ययान्तरेभ्यश्चास्यातिशयसम्भवे तदपेक्षा स्यादुपकारकेष्वेवास्याः सम्भवात्, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । तत्सन्निधानस्यासन्निधानतुल्यत्वाच्च केवल एवासौ कार्यं कुर्यात्, अकुर्वंश्च केवल: सहितावस्थायां च कुर्वन् कथमेकस्वभावो भवेद्विरुद्धधर्माध्यासतः स्वभावभेदानुषङ्गात् ? किञ्च सकलानि कारकाणि साकल्योत्पादने प्रवर्तन्ते, असकलानि वा ? न तावत्सकलानि साकल्यासिद्धौ तत्सकलत्वासिद्ध: । अन्योऽन्याश्रयश्व-सिद्ध हि साकल्ये तेषां सकलरूपतासिद्धिः, मान्यता में अतिप्रसंग आता है, नित्य आत्मादिक पदार्थ में सहकारी की निकटता हो तो भी वह नहीं के बराबर है, आत्मादिक पदार्थों को तो अकेले रहकर ही कार्य कर लेना चाहिए, यदि वे प्रात्मादिक अकेले कार्य को नहीं करते और सहकारी सहित होकर करते हैं तो फिर उनमें एक स्वभावता कहां रही, अर्थात् सहकारी हो तो कार्य करना और न हो तो नहीं करना ऐसे उनमें दो स्वभाव तो हो ही गये, इस तरह अनेक विरुद्ध धर्मस्वरूप हो जाये उनमें स्वभावभेद मानना ही पड़ेगा। अच्छा आप हमको यह बतायो कि सभी कारक साकल्य को उत्पन्न करने में प्रवृत्ति करते हैं या कुछ थोड़े से कारक ? सभी तो कर नहीं सकते, क्योंकि सभी साकल्य ही सिद्ध नहीं हो पा रहा है तो सकल कैसे सिद्ध होगा । तथा ऐसी मान्यता में अन्योन्याश्रय दोष भी आता है अर्थात् साकल्य सिद्ध होने पर कारकों में सकलरूपता की सिद्धि होगी और उसकी सकलरूपता की सिद्धि होने पर साकल्य की सिद्धि होगी, इस तरह दोनों ही सिद्ध नहीं पायेंगे, यदि द्वितीय पक्ष की अपेक्षा लेकर “कुछ थोड़े से-असकल कारक-साकल्य को उत्पन्न करेंगे' ऐसा कहा जाय तो अतिप्रसंग दोष आवेगा, अर्थात् फिर कारक साकल्य यह नाम ही विरुद्ध हो जावेगा । दूसरी बात यह है कि जिस स्वभाव की निकटता से यह कारक समूह साकल्य को उत्पन्न करता है, उसी स्वभाव के द्वारा वह प्रमा-ज्ञान-को ही क्यों नहीं पैदा करेगा, अर्थात् करेगा ही, तो फिर उस साकल्य को व्यर्थ में मानने की क्या जरूरत है, अर्थात् कारक समूह से साकल्य और साकल्य से ज्ञान का पैदा होना ऐसा क्यों मानना, सीधा कारक समूह ही ज्ञान को पैदा करे, यदि कहो कि कारण के बिना प्रमा-ज्ञान उत्पन्न नहीं होती तो साकल्य में भी एक भिन्न करण मानना चाहिए और इस तरह मानने से अनवस्था दोष पायेगा, यदि कहा जाय कि साकल्य तो प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है, अत: उसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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