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________________ कारकसाकन्यवादः २९ ननु कार्याणां सामग्रीप्रभवस्वभावत्वात् तस्याश्चापरापरप्रत्यययोगरूपत्वात्प्रत्येकं नित्यानां तक्रियास्वभावत्वेऽप्यनुत्पत्तिस्तेषामिति, तदप्यसाम्प्रतम् ; यतोऽयमेकोऽपि भावः क्रमभाविकार्योत्पादने समर्थोऽत: कथमेषां भिन्नकालापरापरप्रत्यययोगलक्षणाऽनेकसामग्रीप्रभवस्वभावता स्यात् ? एकेनापि हि तेन तज्जननसामर्थ्य विभ्राणेन तान्युत्पादयितव्यानि, कथमन्यथा केवलस्य तज्जननस्वभावता सिद्धयेत् ? तस्याःकार्यप्रादुर्भावानुमीयमानस्वरूपत्वात् प्रयोगः-यो यन्न जनयति नासौ तज्जननस्वभावः यथा गोधूमो यवाङ कुरमजनयन्न तज्जननस्वभावः, न जनयति चायं केवल: कदाचिदप्युत्तरोत्तरकालभावी नि प्रत्ययान्त रापेक्षाणि कार्याणीति । ननु प्रत्ययान्तरमपेक्ष्य कार्यजननस्वभावत्वान्नासौ केवलस्तज्जनयति, न च सहकारिसहितासहितावस्थयोरस्य स्वभावभेदा; प्रत्ययान्तरापेक्षस्व कार्य को उत्पन्न करने का स्वभावकार्य की उत्पत्ति के बाद अनुमान से सिद्ध होता है, देखो अनुमान से यह बात सिद्ध है कि आत्मादि पदार्थ अकेले समर्थ नहीं हैं, क्योंकि वे कार्य के अजनक हैं, जो जिसको पैदा नहीं करते वे उसके उत्पादक नहीं माने हैं, जैसे गेहूं जौ के अंकुर को पैदा नहीं करते सो वे उसके उत्पादक नहीं माने गये हैं। आत्मा आकाश आदि अकेले रहकर कभी भी उत्तरोत्तर काल में होनेवाले तथा कारणान्तर की अपेक्षा रखनेवाले कार्यों को नहीं करते हैं, अतः वे प्रात्मादिक उन कार्यों के जनक नहीं हैं। नैयायिक कारणान्तर की अपेक्षा लेकर कार्य को करना ऐसा ही आत्मादिक का स्वभाव है, अतः वे अकेले कार्य नहीं करते, सहकारी सहित अवस्था और उस से रहित अवस्था इन दोनों में स्वभाव भेद भी नहीं है, वे तो हमेशा कारणान्तर की अपेक्षा लेकर कार्य करने के जातिस्वभाव को नहीं छोड़ते हैं। जैन-नैयायिक की ऊपर कही हुई यह युक्ति ठीक नहीं है, क्योंकि कारणान्तर की निकटता होते हुए भी वे अात्मादि तो स्वरूप से कार्य करते हैं और स्वरूप तो सहकारी के मिलने से पहिले भी था, अत: . उन्हें तो पहिले भी कार्य करना ही चाहिये, यदि सहकारी के द्वारा उन आत्मादि कारकों में अतिशय आता है और उस अतिशय के कारण ही कार्य होता है तो फिर उस उपकारक अतिशय से कार्योत्पत्ति हुई, प्रात्मादि तो व्यर्थ हुए। यदि अनुपकारक बेकार उस आत्मादि में जबर्दस्ती कारकपना स्वीकार किया जाय तो फिर चाहे जो वस्तु चाहे जिसकी उत्पत्ति में बिना कारण ही कर्तारूप मानी जानी चाहिये, जैसे कि वस्त्र बनाने में जुलाहा कारण है तो वह मिट्टी से घड़े के बनाने में भी कारण मान लेना चाहिए; इस प्रकार का इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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