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कारकसाकल्यवादः
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धारता स्वातन्त्र्यं वा, निर्वय॑त्वादिधर्मयोगित्वं कर्मत्वम्, करणत्वं तु प्रधानक्रियाऽनाधारत्वमित्येतेषी कथमेकत्र सम्भवः तन्न सकलकारकारिण साकल्यम् ।
नापि तद्धर्म:-स हि संयोगः, अन्यो वा ? संयोगश्चन्न ; प्रास्याऽनन्तरं-विस्तरतो निषेधात् । अन्यश्चेत् ; नास्य साकल्यरूपता अतिप्रसङ्गात्-व्यस्तार्थानामपि तत्सम्भवात् । किं चाऽसौ कारकेभ्यो.
अर्थात् जो कर्म कर्ता आदि हैं वे करणरूप होकर भी पुनः कर्ता आदि रूप बन जाते हैं ऐसा कहना हो तो वह बेकार है, क्योंकि वे तो करणरूप बन चुके हैं, उन्हीं को कर्ता और कर्म करना पुनः करणरूप करना ऐसा तो परस्पर में विरोध है। ज्ञान, चिकीर्षा, प्रयत्न की आधारता जहां है वहीं कर्तृता है। निर्वर्त्य आदि धर्म को कर्म कहते हैं, प्रधान क्रिया का जो आधार नहीं वह करण है, मीमांसक मतमें निम्न प्रकार से कर्ता, कर्म और करण कारकों के लक्षण माने गये हैं-ज्ञान का आधार अर्थात् जिसमें ज्ञान हो वह कर्ता है, तथा चिकीर्षा अर्थात् करने की जिसकी इच्छा है वह कर्ता है और प्रयत्न के आधार को कर्त्ताकारक कहते हैं। अथवा स्वतन्त्र को कर्ता कहते हैं । कर्मकारक के ३ भेद हैं, निर्वयं, प्राप्य, विकार्य, जिसमें नयी अवस्था उत्पन्न होती है वह निर्वर्त्य कर्म है, सिद्ध वस्तु ग्रहण करना प्राप्य है और वस्तु की अवस्था में विकार करना विकार्य है, करण कारक-जानने रूप या छेदनादि प्रधानरूप जो क्रियाएं हैं उनका जो आधार नहीं है वह करणकारक कहलाता है इस प्रकार आप लोग कर्ता आदि का लक्षण मानते हैं, सो यह सब भिन्न २ लक्षण वाले होने से एक जगह एक को ही सब कर्ता आदि रूप आप कैसे बना सकते हैं, अर्थात् नहीं बना सकते, अतः सकल कारकोंको कारकसाकल्य कहना सिद्ध नहीं हुआ।
कारकों के धर्म को कारकसाकल्य कहना भी नहीं बनता, धर्म क्या है, क्या वह संयोग रूप है, या अन्य प्रमेयता आदि रूप है । संयोग रूप धर्म को कारकसाकल्य कहो तो ठीक नहीं, क्योंकि हम संयोग का आगे निषेध करनेवाले हैं, अन्य कहो तो सकल रूपता नहीं रहेगी। अतिप्रसंग होगा, व्यस्त-एक एक-भी कारक साकल्य कहलावेंगे। तथा वह धर्म कारकों से अभिन्न है ऐसा कहो तो दोनों अभिन्न होने से एकमेक हो जावेंगे, अतः या तो धर्म ही रहेगा या मात्र कारक ही रहेंगे। यदि धर्म भिन्न है तो संबन्ध होना मुश्किल है, तथा संबंध मान भी लिया जावे तो एक धर्म का सभी कारकों में एक साथ रहना संभव नहीं, क्योंकि अनवस्थादि दोष आते हैं,
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