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________________ २२ प्रमेयक मलमार्त्तण्डे वा गत्यन्तराभावात् ? न तावत्सकलान्येव तानि साकल्यस्वरूपम् ; कर्तृ कर्मभावे तेषां करणत्वानुपपत्त ेः । तद्भावे वा—– अन्येषां कर्तृकर्मरूपता, तेषामेव वा ? नतावदन्येषाम्, सकलकारकव्यतिरेकेणान्येषामभावात्, भावे वा न कारकसाकल्यम् । नापि तेषामेव कर्त्तृ कर्म्मरूपता; कररणत्वाभ्युपगमात् । न चैतेषां कर्त्त कर्मरूपाणामपि करणत्वं परस्परविरोधात् । कर्तृता हि ज्ञानचिकीर्षाप्रयत्ना तपस्विनो दानशीलाः कुलीनाः सत्यवादिनः । धर्मप्रधानाः ऋजवः पुत्रवन्तो धनान्विताः ||६८ || अर्थ - जो पुरुष तपस्वी हैं, दानशील, कुलीन, सत्यभाषी, धर्मपुरुषार्थी, सरलपरिणामी, पुत्रवाला तथा धनिक है वह किसी विषय में साक्षी दे सकता है अन्य नहीं, और भी इस विषय में उस ग्रन्थ में बहुत लिखा है, जैनाचार्य ने इस प्रकार के प्रमाण के लक्षण का निरसन किया है कि ऐसे प्रमाण तो सभी ही अज्ञानरूप हैं, क्योंकि वस्तुतत्त्व को जानने के लिए एक ज्ञान ही अव्यवहितरूप से साधकतम -करण है, अन्य कोई भी वस्तु नहीं । Jain Education International - अध्याय २ दूसरी बात यह है कि जो स्वरूप से प्रसिद्ध ज्ञात होता है उसी में प्रमाणप की व्यवस्था सिद्ध हो सकती है, अप्रसिद्ध में प्रमाणपने की व्यवस्था सिद्ध नहीं होती अर्थात् प्रमापने की व्यवस्था नहीं बन सकती है, अन्यथा अतिप्रसंग होगा । अर्थात् जो स्वरूप से रहित है - स्वरूप से प्रसिद्ध नहीं है ऐसे कारकसाकल्य को स्वीकार करते हो तो खरविषार को भी स्वीकार करना चाहिए, कारकसाकल्य का स्वरूप तो प्रसिद्ध है नहीं । कारक साकल्य का स्वरूप अच्छा बताइये क्या है - क्या सकल कारक ही कारक साकल्य का स्वरूप है ? या कारकों का धर्म कारक साकल्य का स्वरूप है ? या कारकों का कार्य, या अन्य कोई पदार्थ कारक साकल्य का स्वरूप है ? अन्य तो कोई कारक साकल्य का अर्थ होता नहीं है, यदि सकलकारकों को कारक - साकल्य कहते हैं, ऐसा प्रथम पक्ष लो तो कर्त्ता कर्म आदि में कररणपना नहीं होने से वह बनता नहीं, जब कर्ता कर्म को भी करण मानोगे तो सकलकारकों में सभी करण - रूप होने से अन्य किसी को कर्त्ताकर्म बनाओगे या उन्हीं को ? अन्य को तो कहना नहीं क्योंकि सकलकारकों को छोड़कर अन्य कोई है ही नहीं यदि है तो वह सकलकारक ही कारक साकल्य है, यह कहना असत्य ठहरता है, यदि कहो कि उन्हीं को For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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