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________________ ६३८ प्रमेयकमलमार्तण्डे कार्यत्वप्रसङ्गः । रसनस्य चाप्यरसाभिव्यञ्जकत्वादप्कार्यत्ववत् पृथिवीरसाभिव्यञ्जकत्वात्पृथिवी. कार्यत्वप्रसङ्गः। 'नाभसं श्रोत्रं रूपादिषु सन्निहितेषु शब्दस्यैवाभिव्यञ्जकत्वात्' इति चाऽसाम्प्रतम् ; शब्दे नभो प्रकट करती है अतः वह वायु से निर्मित है तो पृथिवी आदि के स्पर्श को प्रकट करने वाली होने से वह पृथिवी आदि से निर्मित भी मानी जायगी ? तथा-चक्षु अग्नि के रूप को प्रकाशित करती है अत: अग्नि से निर्मित है ऐसा माना जाये तो चक्षु पृथिवी जलादिक के रूप को भी प्रकाशित करती है, अतः वह पृथिवी आदि से निर्मित है ऐसा भी स्वीकार करना चाहिये । रसनेन्द्रिय जल के रस को प्रकट करती है अतः वह जल का कार्य है तो वह पृथिवी आदि के रस को भी प्रकट करती हुई देखी जाती है इसलिये पृथिवी आदि का कार्य है ऐसा भी मानना चाहिये। कर्णेन्द्रिय प्राकाश से बनी है इसके लिये नैयायिक का ऐसा अनुमान है"नाभसं श्रोत्रं रूपादिषु सन्निहितेषु शब्दस्यैवाभिव्यंजकत्वात्" कर्ण इन्द्रिय आकाश से बनी है, क्योंकि वह रूप आदि के रहते हए भी सिर्फ शब्द को ही प्रकट करती है सो यह अनुमान भी पहले के समान ही गलत है । आप नैयायिक शब्द को अाकाश का गुण मानकर आकाश निर्मित कर्ण से उसका ग्रहण होना बताते हैं सो दोनों ही बातें[कर्ण का आकाश से उत्पन्न होना और शब्द अाकाश का गुण है] असत्य हैं। क्योंकि आकाश अमूर्त है उसका गुण मूर्तिक इन्द्रिय द्वारा गृहीत नहीं हो सकता, इत्यादि विषय को हम आगे शब्द में आकाश. गुणत्व का खण्डन करते समय स्पष्ट करने वाले हैं । नैयायिक ने इन अनुमानों का निरसन होने से शब्द के विषय में और भी जो अनुमान दिया है कि-शब्द स्वसमानजातीयविशेषगुणवाली इन्द्रिय से ग्रहण किया जाता है, क्योंकि वह सामान्य विशेषरूप होनेपर बाह्य एक इन्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष होता है, अथवा दूसरा हेतु कि बाह्य एक इन्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष होने पर अनात्मा का विशेष गुणरूप होनेसे शब्द स्वसमान जाति के विशेष गुणवाली इन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया जाता है, जैसे रूप आदि स्वसमानजाति के विशेष गुणवाली इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं। भावार्थ- शब्द अपने समान जाति का जो आकाश है उसका गुण है, अतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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