SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 688
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष दित्यमरीचिकाभिर्गन्धाभिव्यक्तिर्भू मेस्तूदकसेकेनेति । 'प्राप्यं रसनं रूपादिषु सन्निहितेषु रसस्यैवाभिव्यञ्जकत्वाल्लालावत्' इत्यत्रापि हेतोलवणेन व्यभिचारः, तस्यानाप्यत्वेपि रसाभिव्यञ्जकत्वप्रसिद्धः। . 'चक्षुस्तैजसं रूपादिषु सन्निहितेषु रूपस्यैवाभिव्यञ्जकत्वात्प्रदीपवत्' इत्यत्रापि हेतोर्माणिक्याा योतितेनानेकान्तः । 'वायव्यं स्पर्शनं रूपादिषु सन्निहितेषु स्पर्शस्यैवाभिव्यञ्जकत्वात्तोयशोतस्पर्शव्यञ्जकवाय्ववयविवत्' इत्यत्रापि कर्पूरादिना सलिलशीतस्पर्शव्यञ्जके नानेकान्तः । पृथिव्यप्त जःस्पर्शाभिव्यञ्जकत्वाचास्य पृथिव्यादिकार्यत्वानुषङ्गो वायुस्पर्शाभिव्यञ्जकत्वाद्वायुकार्यत्ववत् । चक्षुषश्च तेजोरूपाभिव्यञ्जकत्वात्तेजःकार्यत्ववत् पृथिव्यप्समवायिरूपव्यञ्जकत्वात्पृथिव्य सूर्य किरणें पड़ती हैं तो उनके निमित्त से उस शरीर में गंध आने लगती है-वहां गंध प्रकट होती है, तथा पृथिवी पर जल से जब सिंचन किया जाता है तो गंध प्रकट होती है, अतः पृथिवी से ही गन्ध प्रकट हो सो बात नहीं। नैयायिक का रसनेन्द्रिय के लिये अनुमान है-"प्राप्यं रसनं रूपादिषु सन्निहितेषु रसस्यवाभिव्यञ्जकत्वात् लालावत" रसना-जल से बनती है क्योंकि रूप आदि विषय निकट रहते हुए भी वह केवल रस को ही प्रकट करती है जैसे लाला, सो वह हेतु भी सैंधा लवण के साथ व्यभिचरित होता है क्योंकि सैंधा लवण जल से निर्मित नहीं है तो भी जल को प्रकट करता है। "चक्षु अग्नि से बनी है क्योंकि वह रस आदि के सन्निहित होते हुए भी रूप मात्र को ही प्रकाशित करती है", जैसे दीपक मात्र रूप को प्रकाशित करता है । सो यहां का हेतु भी माणिक्य रत्न आदि के द्वारा व्यभिचरित होता है क्योंकि वह माणिक्य तेजस नहीं होते हुए भी केवल रूप को ही प्रकाशित करता है । इसी प्रकार यह कथन भी कि स्पर्शनेन्द्रिय वायु से बनी है क्योंकि रूपादि के रहते हुए भी वह एक स्पर्श को ही प्रकाशित करती है-जैसे जल में होने वाला शीतस्पर्श, वायुरूप अवयवी के द्वारा प्रकट होता है । यहां पर भी हेतु अनैकान्तिक है क्योंकि कपूर आदि पृथिवी के द्वारा भी जल में का शीतस्पर्श प्रकट किया जाता है । अतः वायु से ही शीतस्पर्श प्रकट हो सो बात नहीं । इस प्रकार इन इन्द्रियों के जो कारण माने हैं उनमें व्यभिचार पाता है अतः इनको एक पुद्गल रूप द्रव्य से बनी हुई मानना चाहिये। । तथा स्पर्शनेन्द्रिय सिर्फ वायु के ही स्पर्श को प्रकट करती है सो बात नहीं है, प्रथिवी जल और अग्नि के स्पर्श को भी प्रकट करती है । फिर तो स्पर्शनेन्द्रिय प्रथिवी, जल और अग्नि का भी कार्य है ऐसा मानना चाहिये ? क्योंकि वायु का स्पर्श Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy