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प्रमेयकमलमार्तण्डे
न पदार्थ इन्द्रियोंके पास आते हैं किन्तु दोनों यथा स्थान रहकर इन्द्रिय द्वारा पदार्थका ज्ञान हो जाया करता है । इसप्रकार नैयायिक का चक्षु सन्निकर्षवाद खंडित होता है ।
* चक्षुसन्निकर्षवाद का प्रकरण समाप्त *
चक्षुसन्निकर्षवादके खण्डन का सारांश
नैयायिक इन्द्रिय और पदार्थ का सन्निकर्ष होकर ज्ञान उत्पन्न होता है ऐसा मानते हैं, स्पर्शनादि पांचों इन्द्रियां पदार्थ के साथ संयोग प्राप्त करती हैं, उन पदार्थों में रूपादिगुणों का समवाय है, उनसे संबंधित होकर उनका ज्ञान पैदा होता है, तथा मन आत्मासे संयोग करता है और आत्मा पदार्थ से संबंधित है ही क्योंकि वह व्यापक है, अतः यहां भी सन्निकर्ष होना संभव है, इस तरह जो छूकर ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष प्रमाण है, ऐसा उनके यहां प्रत्यक्ष का लक्षण है ।
प्राचार्य ने प्रत्यक्षप्रमाण का लक्षण "विशदं प्रत्यक्षं' ऐसा कहा है, यदि सन्निकर्ष को प्रत्यक्षप्रमाण माना जाय तो वह लक्षण चक्षु और मन में नहीं पाया जाता, अतः अव्याप्ति दोष युक्त है, तथा योगी प्रत्यक्ष में प्रव्यापक है, सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि सन्निकर्ष प्रत्यक्षप्रमाण माना जाय तो सर्वज्ञका अभाव होगा, क्योंकि इन्द्रियां छूकर जानती हैं और पदार्थ हैं अनन्त, उन सबका सन्निकर्ष होना संभव नहीं, ऐसी हालत में न सबका पूरा छूना होगा न जीव सर्वज्ञ होगा, अतः निश्चय होता है कि चक्षु पदार्थ को विना छुए ही जानती है ।।
नैयायिक-चक्षु भी पदार्थ को छूकर ही जानती है, क्योंकि वह बाह्य इन्द्रिय है [बाहर दिखाई देनेवाली इन्द्रिय है ] जो बाह्य इन्द्रिय होती है वह छूकर ही पदार्थ को जानती है जैसे स्पर्शनेन्द्रिय ।
जैन- यह अनुमान गलत है, क्योंकि हेतु बाधित पक्षवाला है, हम पूछते हैं कि आप चक्षु किसे कहते हैं ? गोल गोल जो प्रांख में पुतली है उसे, या और किसी को ? गोलक चक्षु तो पदार्थ को छूती ही नहीं, अगर माना जाय तो प्रत्यक्ष बाधा है, क्योंकि हमारे नेत्र बिना स्पर्श किये ही वस्तु के वर्ण को ग्रहण करते हुए स्पष्ट प्रतीति में आते हैं।
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