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________________ चक्षुःसन्निकर्षवादः ६११ द्वितीयपक्षेपि तच्छक्तिरूपं चक्षुर्व्यक्तिरूपचक्षुषो भिन्नदेशम्, अभिन्नदेशं वा ? न तावद्भिन्नदेशम् ; तच्छक्तिरूपताव्याघातानुषङ्गानिराधारत्वप्रसङ्गाच्च । न ह्यन्यशक्तिरन्याधारा युक्ता । तद्देशद्वारेणंवार्थोपलब्धिप्रसङ्गश्च । ततोऽभिन्नदेशं चेत् ; तत्तत्र सम्बद्धम्, असम्बद्धवा? सम्बद्ध चेत् ; बहिरर्थवत्स्वाश्रयं तत्सम्बद्ध चाञ्जनादिकमपि प्रकाशयेत् । असम्बद्ध चेत्कथमाधेयं नाम अतिप्रसङ्गात् ? अथ रश्मिरूपं चक्षुः, तस्यापि काचकामलादिना सम्बन्धोस्त्येव । न खलु स्फटिकादिकूपिकामध्यगतप्रदीपादिरश्मयस्ततो निर्गच्छन्तस्तत्संयोगिना न सम्बद्धास्तत्प्रकाशका वा न भवन्तीति प्रती तरह मानने से तो यह गोलक की शक्ति है ऐसा कहना गलत ठहरेगा, तथा ऐसी शक्ति निराधार भी हो जावेगी। अर्थात् -गोलक से शक्तिचक्षु न्यारी है तो प्रथम तो यह गोलक की शक्ति है इस तरह का संबंध ही नहीं बन सकता, दूसरे निराधारपने का प्रसंग पाता है, क्योंकि वह अपने आधार से भिन्न है तथा अन्य की शक्ति अन्य के आधार रहे ऐसा बनता भी नहीं है । यदि शक्ति अन्य आधार में रहती है ऐसा मान लिया जावे तो जहां वह रहती है उसी स्थान पर पदार्थ की उपलब्धि देखनारूप कार्य संपन्न होना चाहिये, परन्तु ऐसा नहीं होता, वह कार्य तो गोलकरूप चक्षु के स्थान पर ही होता है । व्यक्ति रूप चक्षु के अभिन्न प्रदेश में शक्तिरूप चक्षु रहती है ऐसा दूसरा पक्ष मानो तो प्रश्न होता है कि वह शक्तिरूप चक्षु गोलक में संबद्ध है अथवा असंबद्ध है, यदि संबद्ध है तो जैसे वह शक्ति चक्षु बाहर के पदार्थों को प्रकाशित करती है वैसे ही उसे गोलक में संबद्ध हुए अंजन आदि को भी प्रकाशित करना चाहिये, सो क्यों नहीं करती। गोलक में शक्तिरूप चक्षु असंबद्ध रहती है ऐसा कहो तो अतिप्रसङ्ग होगा, "उसमें रहती है और असंबद्ध है" यह बात ही असंबद्ध है । ऐसे असंबद्ध में आधेयता मानोगे तो सह्याचल विंध्याचल का प्राधेय बन जायगा, असंबद्धता तो दोनों में है ही, ऐसे पृथक् पृथक् पदार्थों में आधार और प्राधेयभाव नहीं होता है । रश्मिरूप चक्षु का काचकामलादि से संबन्ध नहीं है, ऐसा तीसरा पक्ष कहो तो यह भी युक्तियुक्त नहीं है क्योंकि रश्मिरूप चक्षु का भी उस काच कामलादि से संबंध है । इसीका खुलासा करते हैं-स्फटिक या काच आदि की कूपिका के [चिमनी के ] भीतर रखे हुए दीपक आदि की किरणें बाहर निकलती हुई उस कूपिकामें लगे हुए केशर या अन्य कोई पदार्थ से संबन्ध नहीं करती हों या उन्हें प्रकाशित नहीं करती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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