SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 661
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे गमनासम्भवात्तदर्थं तदुन्मीलनम्, घृतादिना च पादयोः संस्कारे तत्संस्कारो भवति स्वाश्रयगोलकसंस्कारे तु नितरां स्यात् इत्यस्यापि न वैयर्थ्यम् ; तदापि गोलकादिलग्नस्य कामलादेः प्रकाशकत्वं तेषां स्यात् । न खलु प्रदीपकलिकाश्रयास्तद्रश्मयस्तत्कलिकाव लग्नं शलाकादिकं न प्रकाशयन्तीति युक्तम् । न चात्र चक्षुषः सम्बन्धो नास्तीत्यभिधातव्यम् ; यतो व्यक्तिरूपं चक्षुस्तत्रासम्बद्धम्, शक्तिस्वभावं वा, रश्मिरूपं वा ? प्रथमपक्षे प्रत्यक्षविरोधः; व्यक्तिरूपचक्षुष: काचकामलादौ सम्बन्धप्रतीतेः। सो उस तेजोद्रव्य से किरणें बाहर निकलती हैं, उन्हीं को हम चक्ष कहते हैं और उनके द्वारा ही पदार्थ का प्रकाशन होता है तो गोलकरूप नेत्र का उन्मीलन करना अंजन आदि से उसका संस्कार करना ये सब क्रियाएँ बेकार होवेंगी ? [क्योंकि देखने का काम तो अन्य ही कोई कर रहा है । ] नैयायिक-नेत्र का खोलना तो इसलिये करना पड़ता है कि यदि नेत्र नहीं खोलेंगे तो किरणे पदार्थ के पास वहां से निकल कर जा नहीं सकेंगी, तथा अंजन संस्कार की बात कही सो जब पैरों में घृत आदि की मालिश करने से नेत्र में संस्कार (ज्योति बढ़ना) होता देखा जाता है तब अपने प्राश्रय भूत गोलक का संस्कार होने से किरणों में विशेष ही संस्कार होगा, इसलिये गोलक का अंजनादि से संस्कार करना भी व्यर्थ नहीं ठहरता है। जैन-यदि ऐसी बात है तो गोलकादि में लगे हुए कामलादिरूप मैल का उन्हें प्रकाशन करना चाहिये ? ऐसा तो होता नहीं है कि प्रदीपकलिकाश्रित रश्मियां अपने में लगी हुई शलाका-(कालामैल आदि) का प्रकाशन न करती हों, किन्तु करती ही हैं । कोई कहे कि कामला आदि के साथ चक्ष का संबंध नहीं है, अतः उन्हें वे प्रकाशित नहीं करती हैं, सो ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि उस कामलादि के साथ कौनसी चक्ष असंबद्ध है ? क्या गोलकरूप चक्ष या शक्तिस्वभावरूप चक्ष , या रश्मिरूप चक्ष ? प्रथम पक्ष में प्रत्यक्ष से विरोध प्राता है, क्योंकि प्रत्यक्ष से ही गोलकरूप चक्ष का काचकामलादि रोग के साथ संबंध दिखाई देता है । दूसरा पक्ष लेकर यदि ऐसा कहो कि शक्तिरूप चक्षु से काचकामलादि असंबद्ध है तो वह शक्तिरूप चक्षु गोलकचक्षु से भिन्न स्थान में रहता है अथवा उसी गोलक के स्थान में रहता है ? यदि भिन्न देश में शक्तिरूप चक्षु रहती है ऐसा कहो तो गलत है, क्योंकि इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy