SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 632
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अभावस्य प्रत्यक्षादावन्तर्भावः ५८१ भावाभावस्तत्र तदा तस्योत्पत्तिरित्यप्ययुक्तम् ; तस्यैवानियमान् । स्वोपादानेतरनियमात्तन्नियमेप्यन्योन्याश्रयः। प्रध्वंसाभावोपि भावस्वभाव एव, यद्भावे हि नियता कार्यस्य विपत्तिः स प्रध्वंस:, मृद्रव्यानन्तरोत्तरपरिणामः । तस्य हि तुच्छस्वभावत्वे मुद्गरादिव्यापारवैयर्थ्यं स्यात् । स हि तद्वयापारेण घटादेभिन्नः, अभिन्नो वा विधीयते ? प्रथमपक्षे घटादेस्तदवस्थत्वप्रसङ्गात् 'विनष्टः' इति प्रत्ययो न स्यात् । विनाशसम्बन्धाद् विनष्टः' इति प्रत्ययोत्पत्तौ विनाशतद्वतोः कश्चित्सम्बन्धो वक्तव्यः-स हि तादात्म्यलक्षणः, तदुत्पत्तिस्वरूपो वा स्यात्, तद्विशेषणविशेष्यभावलक्षणो वा ? तत्र न तावत्तादा मीमांसक-जहां पर, जब जिसके प्रागभावका प्रभाव होता है वहां पर तब उसकी उत्पत्ति होती है, इस तरह हम मानते हैं अतः उपादानों में संकरता नहीं होती। जैन-यह कथन अयुक्त है, उसी प्रागभावका तो नियम नहीं बन पाता है [ अर्थात् तुच्छस्वभाववाला प्रागभाव जब जहां पर इत्यादि रूपसे कार्योत्पत्तिका नियमन नहीं कर पाता है ] । मीमांसक-स्वका उपादान और स्वका अनुपादान का जो नियम होता है उस नियमसे प्रागभाव का नियम सिद्ध हो जायगा ? जैन-इसतरह माने तो अन्योन्याश्रय दोष आता है-अर्थात् सव्य विषाण [ दांया सींग ] के उपादान का नियम सिद्ध होनेपर सव्य के प्रागभावका नियम सिद्ध होगा, और प्रागभाव नियम सिद्ध होवे तो सव्यविषाण के उपादानका सिद्ध होगा। अब प्रध्वंसाभाव का लक्षण बताते हैं-प्रध्वंसाभाव नामका प्रभाव भी भावांतर स्वभाववाला है, "यद् भावे हि नियता कार्यस्य विपत्तिः स प्रध्वंसः, मृदद्रव्यानंतरोत्तर परिणाम:” जिसके होनेपर नियमसे कार्यका नाश हो जाया करता है वह प्रध्वंस [ प्रध्वंसाभाव ] कहलाता है, जैसे मृद् द्रव्य ( रूप घटकार्यका ) का अनंतर उत्तर परिणाम ( कपाल ) यदि यह प्रध्वंस तुच्छ स्वभाववाला होता तो उसको करनेके लिये मुद्गर [ लाठी ] आदि के व्यापारकी जरूरत नहीं पड़ती। घट आदि कार्यका मुद्गरादिके व्यापार द्वारा जो प्रध्वंस किया जाता है वह घटादिसे भिन्न है कि अभिन्न है ? प्रथम पक्ष-घटका प्रध्वंस घटसे भिन्न है ऐसा कहेंगे तो घटादि वस्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy