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प्रमेयकमलमार्तण्डे
अन्यतश्चेत् ; किमसाधारणधर्मात्, इतरेतराभावान्तराद्वा ? असाधारणधर्माभ्युपगमे स एव पटादिष्वपि युक्तः । इतरेतराभावान्तराच्चत् ; बहुत्वमितरेतराभावस्यानवस्थाकारि स्यात् ।
किञ्च, इतरेतराभावोप्यसाधारणधर्मेणाव्यावृत्तस्य, व्यावृत्तस्य वा भेदकः ? यद्यव्यावृत्तस्य। किं नकव्यक्त र्भेदकः ? अथ व्यावृत्तस्य; तर्हि घटादिष्वपि स एवास्तु भेदक: किमितरेतराभावकल्पनया ?
किञ्च, अनेन घटे पट: प्रतिषिध्यते, पटत्वसामान्यं वा, उभयं वा ? प्रथमपक्षे किं पटविशिष्ट
रेतराभाव अन्य पदार्थ से एवं प्रागभाव आदि से व्यावृत्त होता है वह स्वतः होता है या अन्य किसी निमित्त से ? यदि वह स्वतः ही व्यावृत्त होता है तो जैसे वह इतरेतराभाव अपने आप अन्यभाव से और प्रागभाव प्रादि से व्यावृत्त है वैसे ही घट भी स्वयं पर पदार्थोंसे व्यावृत्त होता है ऐसा प्रतीतिसिद्ध सिद्धान्त मानने में क्या आपत्ति है। यदि इतरेतराभाव अन्य निमित्तसे व्यावृत्त होता है ऐसा माना जाय तो वह अन्य निमित्त क्या है ? असाधारण धर्म है या दूसरा इतरेतराभाव है ? यदि असाधारण धर्म से इतरेतराभाव अपने आपको अन्य प्रागभावादिकों से जुदा करता है तो वही बात घट पट आदि पदार्थों में भी मान लेनी चाहिये, अर्थात् घट पट अादि पदार्थ भी अपने २ असाधारण धर्म के कारण ही अन्य २ पदार्थों से व्यावृत्त होते हैं, उन्हें परस्पर में व्यावृत्त कराने के लिए इतरेतराभावकी क्या आवश्यकता है । यदि द्वितीय पक्ष कहा जाय कि इतरेतराभाव को दूसरा इतरेतराभाव प्रागभाव मादिसे व्यावृत्त कराता है तो बहुत सारे इतरेतराभाव इकट्ठे हो जावेंगे और इसतरह की कल्पना से अनवस्थाव्याघ्री मुख फाड़े खड़ी हो जावेगी।
किश्च -इतरेतराभाव असाधारण धर्मसे व्यावृत्त हुए पदार्थका भेदक होता है अथवा अव्यावृत्त हुए पदार्थका भेदक होता है ? अव्यावृत्तका भेदक मानें तो एक (घट ) व्यक्ति का भेदक क्यों नहीं होगा ? और व्यावृत्त हुए पदार्थ का भेदक है तो घट, पट गृह वृक्ष आदि सभी पदार्थों में भी वही असाधारण धर्म ही भेद करानेवाला है ऐसा मानना चाहिये, व्यर्थ ही इतरेतराभाव की कल्पना से क्या लाभ ? किञ्चइतरेतराभाव के द्वारा घट में पटका निषेध किया जाता है कि पटत्व सामन्यका निषेध किया जाता है अथवा दोनों का निषेध किया जाता है ? प्रथम पक्ष – इतरेतराभाव घट में पट का निषेध करता है ऐसा कहा जावे तो हम पूछते हैं कि पट विशिष्ट घट
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