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________________ शक्तिस्वरूपविचारः ५४६ करने के लिये अनेक स्वभाव चाहिये इत्यादि प्रश्न एकांत पक्षको बाधित कर सकते हैं अनेकान्त पक्षको नहीं, क्योंकि शक्तिमान पदार्थ से शक्तियां अभिन्न स्वीकार की गयी है अत: अनेक शक्तियोंको एक ही पदार्थ भली प्रकारसे धार लेता है, देखा भी जाता है कि एक ही दीपक नाना पदार्थ एक साथ अनेकों कार्य करने की क्षमता रखता हैतेल शोष, दाह, प्रकाश इत्यादि कार्यों की एक साथ अन्यथानुपपत्ति (यदि शक्तियां अनेक नहीं होती तो ये तेल शोषादि अनेक कार्य नहीं हो सकते थे) से ही दीपक में अनेक शक्तियोंका सद्भाव सिद्ध होता है। दीपक की तरह अन्य सभी पदार्थों में घटित करना चाहिये । शक्ति किससे पैदा होती है ? ऐसा परवादीके प्रश्नका उत्तर इस प्रकार हैशक्तिमानसे शक्ति पैदा होती है, शक्तिमान अपने पूर्व शक्ति से सशक्त होता है, इस तरह शक्तिसे सशक्त और पुन: उस सशक्त शक्तिमानसे शक्ति अनादि प्रवाहसे उत्पन्न होती रहती है, जैसे बीजसे अंकुर और पुनः अंकुरसे बीज अनादि प्रवाहसे उत्पन्न होते रहते हैं । स्वयं परवादी के यहां भी इस प्रकार का अनादि प्रवाह माना है अदृष्ट से अदृष्टांतर अनादि प्रवाह से आत्मा में उत्पन्न होता रहता है ऐसा वे भी कहते हैं। पदार्थों में अतीन्द्रिय शक्तिका सद्भाव सिद्ध करनेके लिये अग्निका उदाहरण अत्यन्त उपयुक्त होगा-किसी स्थान पर अग्नि जल रही है उस अग्निको प्रतिबंधक मरिण मंत्र आदि से रोका जाता है तब वह पूर्ववत् जलती रहने पर भी स्फोट आदि कार्योंको नहीं कर पाती, उस समय उसका स्वभाव हटाया जाता है ऐसा भी नहीं कह सकते क्योंकि जिस पदार्थ या व्यक्तिके प्रति स्तंभन किया गया है उसी को नहीं जलाती, अन्यको जलाती भी है, यदि बाहर में दिखायी देने वाला लाल स्वरूपसे धधकते रहना इत्यादि मात्र अग्निका स्वरूप माना जाय तो वह स्वरूप प्रतिबंधक मणि या मंत्र के सद्भाव में भी रहता है, किन्तु उस प्रतिबंधक के सद्भाव में स्फोट आदि कार्य तो नहीं होते सो ऐसा क्यों ? प्रतिबंधक मंत्र मणि आदिने किसको रोका है ? बाहरी स्वरूप तो ज्यों का त्यों है ? अतः कहना पड़ता है कि प्रतिबंधक मणि आदिने अग्निके अतीन्द्रिय शक्तिका स्तंभन किया है । इस अग्निके उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि पदार्थका बाहरी स्वरूप ही सब कुछ नहीं है, अकेला बाह्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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