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________________ ५४६ प्रमेयकमलमार्तण्डे तरमणीयम् ; रूपादेरप्यभावप्रसङ्गात् । शक्यं हि वक्तु कर्कटिकादिद्रव्ये चक्षुरादिसामग्रीभेदादू पा थी, अन्य रूप नहीं थी सो यह कथन हास्यास्पद है । जब कुन्दकुन्दाचार्य स्वयं कह रहे कि एक ही प्रकार का बीज अनेक भूमिका निमित्त पाकर अनेक रूप परिणमन करता है, तब उपादान में एक प्रकार की ही परिणमन की शक्ति है, यह कहना कैसे सत्य हो सकता है अर्थात् नहीं । एक दुकानदार अपने दुकान पर बैठा है । उसके अन्दर हंसना, रोना, चिन्ता करना, उदास होना आदि सब प्रकार के भाव होने की योग्यता है, कोई भी एक हंसने रोने रूप पर्याय एक समय में प्रगट होगी, किन्तु निश्चित् एक यही होगी ऐसा नियम नहीं है, विदूषक आदि हंसी का दृश्य सामने से निकलेगा तो वह पुरुष हंसने लगेगा, करुणापूर्ण दीन दु:खी आदमी दिखेगा तो वह रो पड़ेगा, घर की कुछ बुरी खबर सुनेगा या पदार्थों के भाव घटने का समाचार सुनेगा तो चिन्ता करने लगेगा इत्यादि । अत: यह निश्चित होता है कि पर्याय शक्तिका प्रगट होना सहकारी के आधीन है । यदि पर्याय शक्ति का निश्चित रूपसे प्रगट होना है, अर्थात् निश्चित ही कार्य को करना है, तो चारों पुरुषार्थ व्यर्थ ठहरते हैं, हमारी आगामी व्यञ्जन पर्याय निश्चित् है तो हम किसलिये अच्छा या बुरा काम करेंगे ? जैसा आगे होना होता है, वैसा अपने को होना ही पड़ता है। यह भंयकर नियति वाद ईश्वरवाद से भी अधिक कष्टदायी है, ईश्वरवादके चक्कर से तो ईश्वर की उपासना कर छूट सकते हैं, किन्तु इस नियतिवाद-जैसा होना है वैसा ही होगा के चक्कर से किसी प्रकार भी छुटकारा नहीं, वह तो अथाह सागर की भंवर है । नियति के प्रवाह में घूमते हुए हम सर्वथा पुरुषार्थहीन, हाथ पैर, मुख मन, बुद्धि सबसे हीन हैं, सब हिलना, धोना, खाना, सोचना, नियति देवी के अधीन है, कोई किसी को कहता नहीं कि तुम यह काम करो। यह काम तुमने क्यों किया, बालकों ने बर्तन फोड़ दिया, विद्यार्थी ने अभ्यास नहीं किया, यहां तक किसी ने अमुक व्यक्ति को मार डाला, सब माफ है । क्योंकि उस समय उस पुरुष से वैसा हो होना था ? मांस बेचने वाले पशु पक्षी को मारने वाले पापी हिंसक क्यों हैं ? वे तो नियति के अनुसार जैसा होना था, उसीके अनुसार कार्य कर रहे हैं ? कहां तक लिखें ? कोई पुरुष को हाथ पैर बांधकर मुख में कपड़ा दे कर अंधेरी कोठड़ी में बंद कर देने से भी अधिक भयंकर नियतिवाद-जैसी उपादान की योग्यता होती है-द्रव्य शक्ति होती है वैसा निमित्तपर्यायशक्ति हाजिर होता है । इतनी पुरुषार्थ हीनता की बात उपादान की मुख्यताकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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