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________________ ५४५ शक्तिस्वरूपविचारा वत्तिकादिसहकारिसामग्री भेदात्तद्दाहादिकार्थनानात्वं न पुनस्तच्छक्तिस्वभावभेदात् ; इत्यप्यविचारि तो कुछ अपने आप उपस्थित होने की बात भी कहते किन्तु पर्याय शक्ति के सहकारी कारण अनेक हैं। एक बात और विशेष लक्ष देने योग्य है कि द्रव्य में एक ही प्रकार की शक्ति नहीं है “तत्रार्थानामनेकैव शक्ति:" अर्थात् पदार्थों में अनेक प्रकार की शक्तियां हैं । पर्याय शक्ति को जैसे सहकारी कारण या निमित्त मिलता है वैसा ही कार्य प्रगट होता है । प्रवचनसार गाथा २५५ में कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं रागो पसत्थ भूदो वत्थु विसेसेण फलादि विवरीदं । गाणाभूमि गदाणिह वीजणिह सस्स कालम्हि ॥२५५।। अर्थ-प्रशस्त राग या शुभोपयोग एक रूप होकर भी वस्तु विशेष के कारण (व्यक्ति-पुरुष विशेष के निमित्त से) विपरीत फल देनेवाला होता है। जैसे कि बीज समान होते हुए भी पृथक पृथक उपजाऊ शक्ति वाली भूमि के निमित्त से उन्हीं बीजों से पृथक पृथक ही फसल पाती है। अर्थात् क्षेत्र में जितनी उपजाऊ शक्ति है, उतना ही अधिक धान्य की पैदास होगी। यह हुआ दृष्टान्त, दान्ति प्रशस्त रागका है, सो वह भी उत्तम मध्यम जघन्य पात्र के कारण अर्थात् सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के कारण सही और विपरीत फल देनेवाला हो जाता है, सम्यग्दृष्टि के तो वर्तमान में विपुल पुण्य बंधका कारण और परंपरा से मोक्ष का कारण होता है, इससे विपरीत मिथ्यादृष्टि के मात्र पुण्यका कारण होता है, और परंपरा से संसार में रुलाता है । इस गाथा से सिद्ध होता है, कि बीज भूत उपादान में एक ही समय में अनेक शक्तियां विद्यमान हैं, जैसा निमित्त मिलेगा वैसी एक मात्र शक्ति प्रगट होगी, और शेष शक्तियां यों ही रहेगी। उपादान समान रूपसे होनेपर भी निमित्त पृथक पृथक होने से पृथक पृथक ही कार्य प्रगट होता है । यह सिद्धान्त उपर्युक्त गाथा कथित बीज और भूमिके उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है। ऐसे अनेकों उदाहरण हैं, मेघ से पानी समान ही सर्वत्र बरसता है, किन्तु अलग अलग भूमि वृक्ष, नीम, आम, इक्षु आदि का निमित्त पाकर अलग अलग कडुपा या मीठे रूप परिणमन कर जाता है । उस मेघ जलमें एक साथ एक समय में कडुप्रा मीठा आदि अनेक रूप परिणमन करने की शक्तियां अवश्य ही थी, जिसके कारण यह कडुआ या मीठे आदि रूप परिणमन कर गया । उसमें यह कहना कि नीम के वृक्ष पर पड़े हुए जलमै मात्र कडुए रस रूप परिणमन की ही शक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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