SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 594
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शक्तिस्वरूप विचार: ५४३ तद्रहितत्वमिति चेत् ? तर्हि तैलशोषादिविचित्रकार्यानुमानबुद्धौ शक्तिनानात्वस्याप्यर्थानां प्रतीतेः कथं तद्रहितत्वं स्यात् ? प्रत्यक्षबुद्धौ प्रतिभासमाना रूपादय एव परमार्थसन्तो न त्वनुमानबुद्धी प्रतिभास शंका - दीपक आदि एक ही द्रव्य में जो कार्य का नानापना है वह बत्ती आदि सहकारी सामग्री के नानापना के कारण है, अर्थात् प्रदीपादिक में दाहशोष आदि नाना कार्य होते हुए देखने में आते हैं, वे सहकारी नाना होने से देखने में आते हैं, न कि दीपक के शक्तियोंके स्वभाव भेदोंसे ? समाधान - यह भी बिना सोचे कहना है, क्योंकि ऐसा मानने पर तो रूप आदि स्वभावों का ही अभाव हो जायेगा, फिर तो ऐसा कहा जा सकता है कि ककड़ी आदि द्रव्यों में चक्षु आदि सामग्री के भेद होने से ही रूप आदि का पृथक-पृथक प्रतिभास होता है न कि निजीरूप रसादि स्वभाव के कारण । इस प्रकार के बड़े भारी दोषों से छुटकारा पाने के लिये प्रमाण प्रतीत रूपादिकों के समान शक्तियों का अपलाप करना युक्ति युक्त नहीं है, अर्थात् जैसे रूप रस आदि अनेक स्वभाव वाला पदार्थ ज्ञान में प्रतिभासित होता है, उसी प्रकार कार्यों में अनेकपना दिखाई देने से उनके कारणों की शक्तियों में नानापना मानना चाहिये । विशेषार्थ - इस शक्ति स्वरूप विचार नामक प्रकरण में पदार्थों की प्रतीन्द्रिय शक्ति की सिद्धि करते समय श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने बहुत ही अकाट्य तर्क और उदाहरणों द्वारा नैयायिकादि परवादियों को समझाया है, जैन सिद्धांत में सम्मत शक्ति क्या है यह बहुत ही विशद रीति से टीकाकार ने उदाहरणों द्वारा समझाया है, अतीन्द्रिय शक्ति क्या है इसके लिये अग्नि का उदाहरण बहुत ही सुंदर और स्पष्ट है, बाहर लाल पीला दिखायी देने वाला अग्नि का रूप मात्र ही स्फोट आदि कार्यों का करता है ऐसा जो नैयायिक का मत है वह जब विचार में आता है तो शतशः खण्डित हो जाता है । जब कोई मांत्रिक या अन्य पुरुष उस अग्नि की शक्ति को मंत्र या मणि आदि से कीलित करता है, रोक देता है तब वह अग्नि बाहर में वैसी की वैसी धधकती हुई भी स्फोट ( सुरंग लगाकर पत्थर आदि को फोड़ना, तोप चलाना ) दाह आदि कार्य को नहीं कर पाती है ? इसीसे सिद्ध होता है कि अग्नि का बाहरी स्वरूप मात्र जलाना आदि कार्यों को नहीं करता, किन्तु कोई एक उसमें ऐसी अलक्ष्य प्रतीन्द्रिय शक्ति है कि जिसके द्वारा ये कार्य सम्पन्न होते हैं । इसी तरह प्रत्येक पदार्थ में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy