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शक्तिविचार पूर्वपक्ष
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अर्थ-यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि कार्योत्पत्ति में उपादान का नियम बतलाया गया है । अत: हम पदार्थों में कोई नया कार्यकारणभाव तो निर्माण कर नहीं सकते, केवल कार्योत्पत्ति में जिस प्रकार से उपादान की प्रवृत्ति होती है, उसी के अनुसार हम व्यवहार करते हैं। छेदनक्रिया में जिसके साथ उसका अन्वय व्यतिरेक घटित होता है ऐसे उस कुठार को ही कारण माना है, पादुका आदिको नहीं, क्योंकि उसके साथ छेदनक्रिया का अन्वय व्यतिरेक घटित नहीं होता है, यदि कहा जाय कि परशु तो हमेशा से है, अत: हमेशा ही छेदनक्रिया होती रहनी चाहिये सो ऐसी बात नहीं बनती, क्योंकि छेदनक्रिया में परशु स्वरूप के समान सहकारी कारणोंकी भी अपेक्षा हुआ करती है, अत: सहकारी कारण जब मिलेंगे तभी अर्थक्रिया होगी सदा नहीं।
"यदपि विषदहनसन्निधाने सत्यपि मन्त्रप्रयोगात् तत्कार्यादर्शनं तदपि न शक्तिप्रतिबंधनिबंधनमपि तु सामग्रचन्तरानुप्रवेशहेतुकम्" ।
अर्थ- छेदन क्रिया में जैसी बात है वैसी ही बात विष तथा अग्नि में भी है। अर्थात् विष और अग्निके होते हुए भी जो उनका मरण और दाहरूप कार्य सदा होता हुया नहीं देखा जाता है सो उसमें कारण मन्त्रप्रयोग है। वह मंत्रप्रयोग भी विष एवं अग्नि की शक्तिको रोकनेवाला नहीं है, किन्तु उस मन्त्ररूप अन्य ही सामग्री का वहां प्रवेश हो जानेसे उनका दाहादि कार्य नहीं हो पाता है।
"ननु मंत्रेण प्रविशता तत्र किं कृतं न किञ्चित् कृतं, सामग्रथन्तरं तु संपादित क्वचिद्धि सामग्री कस्यचित्कार्यस्य हेतुः, स्वरूपं तदवस्थमेवेति चेत्" ।
कोई शंकाकार कहे कि मंत्र वहां अग्नि या विष आदि में प्रविष्ट भी हो जाय तो वह वहां क्या कर देता है ? तो उसका उत्तर यह है कि कुछ भी नहीं करता। अन्य सामग्री उपस्थित हुई तो होने दो, उसका कार्य भी अन्य ही रहेगा, किन्तु उस मंत्ररूप सामग्री ने अग्नि का स्वरूप तो नहीं बिगाड़ा है, वह तो जैसी है वैसी है फिर दाह आदि कार्य क्यों नहीं हुआ ?
"यद्येवमभक्षितमपि विषं कथं न हन्यात्, तत्रास्य संयोगाद्यपेक्षणीय मस्तीति चेत् मन्त्राभावोऽप्यपेक्षन्ताम्, दिव्यकरणकाले धर्म इव मंत्रोऽप्यनुप्रविष्टः कार्य प्रतिहन्ति, शक्तिपक्षेऽपि मन्त्रस्य को व्यापारः । मंत्रेण हि शक्त शो वा क्रियते प्रतिबंधो वा ? न तावन्नाशः, मंत्रापगमे पुनस्तत्कार्यदर्शनात्, प्रतिबंधस्तु स्वरूपस्यैव शक्त रिवास्तु, स्वरूप
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