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________________ ५१८ प्रमेय कमलमार्त्तण्डे एवं यत्पक्षधर्मत्वं ज्येष्ठ हेत्वङ्गमिष्यते । तत्पूर्वोक्तान्यधर्मस्य दर्शनाद्वयभिचार्यते ।। ३ ।।" [ ] इत्यभिधानात् । नियमवतोऽर्थान्तरप्रतिपत्तेरविशेषात्तयोरभेदे स्वसाध्याविनाभाविनोर्थादर्थान्तरप्रतिपत्तेरत्राप्यविशेषात्कथमनुमानादर्थापत्तर्भेदः स्यात् ? अथ विपक्षेऽनुपलम्भात्तस्यान्यथानुपपद्यमानत्वावगमः; न; पार्थिवत्वादेरप्येवं स्वसाध्याविनाभावित्वावगमप्रसङ्गात् विपक्षेनुपलम्भस्याविशेषात्, सर्वात्म समाधान - यदि ऐसी बात है तो फिर अपने साध्य के साथ अविनाभाव संबंधवाले हेतु या नदीपूर आदि से भी तो अर्थान्तर अग्नि या वृष्टि का ज्ञान समानता से ही होता है, अतः इन अनुमान और प्रर्थापत्ति में भेद किस प्रकार सिद्ध होगा; - अर्थात् जैसे पक्षधर्म रहित अर्थापत्ति और पक्षधर्मयुक्त अर्थापत्ति इनमें भिन्न प्रमाणता नहीं है, उसी प्रकार अनुमान और अर्थापत्ति में भी भिन्न प्रमाणता नहीं है यह निश्चित हो जाता है । करते हुए टीकाकार प्रदेश में नदीपूर का वृष्टि का अविनाभाव विपक्ष में अनुपलम्भनामा दूसरे पक्ष का निरसन कहते हैं - कि यदि ऐसा कहा जाय कि विपक्ष में- वृष्टिरहित अभाव रहता है, अतः इस विपक्षानुपलम्भ से नदीपूर और • संबंध ज्ञात हो जाता है; अर्थात् जब नदीपूर दिखाई देता है तो वह बिना वृष्टि के आता नहीं है, पूर तो प्राया हुआ दिखाई दे रहा है अतः वह वृष्टि का अनुमापक हो जाता है, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि विपक्ष में अनुपलम्भ होने मात्र से अविनाभाव का निश्चय नहीं हो सकता, यदि एकान्ततः ऐसा माना जाय तो पूर्वकथित पार्थिवत्वादि हेतु भी अपने साध्य के - वज्र में लोहलेख्यत्व श्रादि के अवगम कराने वाले हो जावेंगे, क्योंकि पार्थिवत्वादि जो हेतु हैं वे भी विपक्ष जो प्राकाशादि हैं उनमें उपलब्ध नहीं होते हैं । एक प्रश्न भी यह पूछा जा सकता है कि विपक्ष में जो अनुपलम्भ होता है वह सभी को होता है कि अपने को ही होता है ? सभी को अनुपलम्भ होना प्रसिद्ध है, और यदि अपने को अनुपलम्भ होना कहा जाय तो हेतु में अनैकान्तिकता होती है । तथा अपने अनुपत्वमात्र से कोई साध्य की सिद्धि होती नहीं है । शंका- ऐसे दोनों तरह से सर्व संबंधी अनुपलम्भ और आत्मसंबंधी अनुपलम्भ को नहीं मानेंगे तो सम्पूर्ण अनुमानों का उच्छेद ( प्रभाव ) हो जावेगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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