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अर्थापत्तः अनुमानेन्तर्भावः
नन्वेवं प्रत्यक्षतरभेदात्कथं भवतोपि प्रमाणद्वैविध्यव्यवस्था-तेषां प्रमाणान्तरत्वप्रसिद्धरविशेषादिति चेत् ? तेषां 'परोक्षेऽन्तर्भावात्' इति ब्रूमः । तथाहि-यदेकलक्षणलक्षितं तद्वयक्तिभेदेप्येकमेव यथा वैशा कलक्षणलक्षितं चक्षुरादिप्रत्यक्षम्, अवैशद्य कलक्षणलक्षितं च शाब्दादीति । चक्षु. रादिसामग्रीभेदेपि हि तज्ज्ञानानां वैशा कलक्षणलक्षितत्वेनैवाभेदः प्रसिद्धः प्रत्यक्षरूपतानतिक्रमात्, तद्वत् शब्दादिसामग्री भेदेप्यवैशद्य कलक्षितत्वेनैवाभेदः शाब्दादीनाम् परोक्षरूपत्वाविशेषात् । ननु
जब बौद्ध के प्रमाणद्वैविध्य का निराकरण हो चुका तब किसीको ऐसी शंका हुई कि आप जैन भी तो दो प्रमाण मानते हैं सो उनकी व्यवस्था आपके यहां कैसे होगी ? क्योंकि पागम आदि अन्य प्रमाण सिद्ध हो चुके हैं। इस कारण बौद्धके समान
आपके द्वारा मान्य प्रमाण की द्वित्वसंख्या का भी विघटन हो जाता है ? सो इस शंका का समाधान करते हैं-जैनों द्वारा मान्य प्रमाण की द्वित्वसंख्या का विघटन इसलिये नहीं होता है कि हमने उन पागम आदि प्रमाणोंका परोक्षप्रमाण में अन्तर्भाव किया है, देखिये -
जो एक लक्षण से लक्षित होता है वह व्यक्तिभेद के होनेपर भी एक ही रहता है जैसे वैशद्यरूप एक लक्षणसे लक्षित चक्षु आदि इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ प्रत्यक्ष अनेक प्रकारका होते हुए भी एक ही है । क्योंकि उन अनेकों में प्रत्यक्षपने का उल्लंघन नहीं होता, ठीक इसी तरह से शब्द आदि सामग्री का भेद रहते हुए भी अवैशद्यरूप एक ही लक्षणसे लक्षित किये गये आगमादि में भी अभेद ही है । क्योंकि परोक्षपना तो उन पागम उपमानादि में समानरूप से ही देखा गया है।
शंका-आप जैनने परोक्षके जो भेद किये हैं वे सिर्फ स्मृति आदि रूप हैं उनमें उपमान प्रादिका उल्लेख नहीं है । अत: वे तो इनसे भिन्न प्रमाण हैं ?
समाधान-यह कथन बिना सोचे किया है क्योंकि उपमानादिको हमने इन्हीं परोक्षभेदोंमें अन्तर्हित किया है। उपमानका प्रत्यभिज्ञानमै अतंर्भाव होता है ऐसा हम
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