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प्रमेयकमलमार्तण्डे
न च निरंशत्वाद्वस्तुनस्तत्स्वरूपग्राहिणाध्यक्षेणास्य सर्वात्मना ग्रहणादगृहीतस्य चापरस्यादंशस्य तत्राभावात् कथं तद्वयवस्थापनाय प्रवर्त्तमानमभावाख्यं प्रमाणं प्रामाण्यमश्नुते ? इत्यभिधातव्यम् ; यतः सदसदात्मके वस्तुनि प्रत्यक्षादिना तत्र सदंशग्रहणेप्यगृहीतस्यासदंशस्य व्यवस्थापनाय प्रमाणाभावस्य प्रवर्त्तमानस्य न प्रामाण्यव्याहतिः । उक्त च
"स्वरूपपररूपाभ्यां नित्यं सदसदात्मके। वस्तुनि ज्ञायते किञ्चिद्र पं कैश्चित्कदाचन ॥ १।। यस्य यत्र यदोभूतिजिघृक्षा चोपजायते । वेद्यतेनुभवस्तस्य तेन च व्यपदिश्यते ॥ २॥ तस्योपकारकत्वेन वर्त्ततेऽशस्तदेतरः । उभयोरपि संवित्त्या उभयानुगमोस्ति तु ।। ३ ।।"
[ मी० श्लो• अभाव० श्लो० १२-१४ ]
उस ज्ञानको उसीके नामसे पुकारा जाता है ॥२॥ जिस समय सद् असद् अंशोंमें से एक का ग्रहण होता है उस समय अवशेष अंश उसमें रहता ही है और उसका उपकारक भी होता है, जब ज्ञानसे दोनों भी अंश संविदित होते हैं तब दोनोंका अनुगम होता है ॥ ३ ॥ जब भावांशको ग्रहण करना होता है तब सद्भाव ग्राहक प्रत्यक्षादि पांचों प्रमाणोंका अवतार होता है, और उन्हींका व्यापार होता है क्योंकि उस समय अभावांशकी अनुत्पत्ति है, तथा जब अभावांशको जाननेकी इच्छा होती है तब अभाव ग्राहक प्रमाणका अवतार एवं व्यापार होता है ॥ ४ ॥
यहांपर कोई आशंका करे कि धर्मीभूत वस्तुसे भावांशके समान अभावांश भी अभिन्न है अतः अभावांशका भी प्रत्यक्षद्वारा ग्रहण हो जाना चाहिये ? तो उसका समाधान यह है कि भावांश और अभावांशका धर्मी एक होनेपर भी अर्थात धर्मी में अभेद रहनेपर भी उन भावांश अभावांश धर्मों में तो परस्पर में भेद ही रहा करता है, जिस समय सद्भावग्राही प्रत्यक्षप्रमाण प्रवृत्त होता है उस समय अभावांशकी अनुभूति रहती है, जैसे कि नेत्रकी किरणोंमें रूप आदिकी अनुभूति रहा करती है । अतः अभावका भावरूप प्रमाणद्वारा जानना सिद्ध नहीं होता, अनुमान प्रयोगसे भी यही निश्चित होता है कि जो जिसप्रकार का विषय होता है वह उसीप्रकारके प्रमाणद्वारा जाना जाता है, जैसे रूपादि भावरूप वस्तुको भावरूप चक्षुरादि इन्द्रिय द्वारा जाना
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