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________________ अभावविचार: ५०७ नास्तिता पयसो दनि प्रध्वंसाभावलक्षणम् । गवि योऽश्वाद्यभावस्तु सोन्योन्याभाव उच्यते ।। २ ।। शिरसोऽवयवा निम्ना वृद्धिकाठिन्यजिताः । शशशृङ्गादिरूपेण सोऽत्यन्ताभाव उच्यते ॥ ३ ॥ [मी० श्लो० अभाव० श्लो० २-४ ] यदि चैतेषां व्यवस्थापकमभावाख्यं प्रमाणं न स्यात्तदा प्रतिनियतवस्तुव्यवस्था विलोपः स्यात् । तदुक्तम् "क्षीरे दधि भवेदेवं दध्नि क्षीरं घटे पटः। शशे शृङ्गपृथिव्यादौ चैतन्यं मूर्तितात्मनि ।। अप्सु गन्धो रसश्चाग्नौ वायौ रूपेण तौ सह । व्योम्नि संस्पर्शता ते च न चेदस्य प्रमाणता ॥" [ मी० श्लो• अभाव० श्लो० ५-६ ] इति । जायगी, घटमें पटका अस्तित्व मानना पड़ेगा, खरगोशमें सींगका अस्तित्व, पृथ्वी आदि में चैतन्यका अस्तित्व, आत्मामें मूर्त्तत्वका अस्तित्व इत्यादि विपरीतताको मानना पड़ेगा ॥१॥ जलमें गन्ध, अग्निमें रस, वायुमें रूप रस गंध, एवं आकाश में गंध, रस, रूप और स्पर्श इन सबका सद्भाव मानना होगा ? ॥२॥ शंका-वस्तु निरंश है उस निरंश वस्तुके स्वरूपको (अर्थात् सदुभावांशको) ग्रहण करनेवाले प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा उसका सर्वात्मपनेसे ग्रहण हो जाता है फिर अन्य कोई अंश तो उस वस्तुमें बचा नहीं कि जिसकी व्यवस्था करने के लिये अभाव नामका प्रमाण आवे एवं उसको प्रमाणभूत माने ? समाधान- यह शंका ठीक नहीं है, वस्तु निरंश न होकर सद असद रूप दो अंश वाली है, उसमें प्रत्यक्षादिसे सदंशका ग्रहण होनेपर भी अन्य जो असदंश है वह अगृहीत ही रहता है उस असदंशकी व्यवस्था करनेके लिये प्रवृत्त हुए प्रभाव प्रमाण में प्रामाण्यकी क्षति नहीं मानी जा सकती। कहा भी है-वस्तु हमेशा स्वरूपसे सत और पररूपसे असत् हुआ करती है, इन सत् प्रसतु रूपोंमेंसे कोई एक रूप किन्ही प्रमाणों द्वारा जाना जाता है तथा कभी कोई एक दूसरा रूप अन्य प्रमाण द्वारा जाना जाता है ॥१॥ जिसकी जहां पर जब उद्भूति होती है एवं पुरुषको जानने की इच्छा होती है तदनुसार उसका उसीके द्वारा अनुभव किया जाता है [जाना जाता है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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