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________________ प्रागमविचारः ** ननु मा भूत्प्रमेयभेदः, तथाप्यागमादीनां नानुमानादर्थान्तरत्वम् । शब्दादिकं हि परोक्षार्थं सम्बद्धम्, असम्बद्ध वा गमयेत् ? न तावदसम्बद्ध म्; गवादेरप्यश्वादिप्रतिभासप्रसङ्गात् । सम्बद्ध चेत्; तल्लिङ्गमेव, तज्जनितं च ज्ञानमनुमानमेव । इत्यप्यसाम्प्रतम् ; प्रत्यक्षस्याप्येवमनुमानत्वप्रसङ्गात्तदपि हि स्वविषये सम्बद्ध सत्तस्य गमकम् नान्यथा, सर्वस्य प्रमातुः सर्वार्थप्रत्यक्षत्वप्रसङ्गात् । अथ बौद्ध - प्रमेयके भेद मानना इष्ट नहीं है तो रहने दीजिये किन्तु आगमादि ज्ञानोंका अनुमान प्रमाणसे पृथकपना तो कथमपि सिद्ध नहीं होता । देखिये ! मीमांसकादिने आगमादि प्रमाणोंका कारण शब्दादिकों को माना है सो वे शब्दादिक परोक्षभूत पदार्थों के गमक हुआ करते हैं सो उन पदार्थोंसे संबद्ध होकर गमक होते हैं अथवा असंबद्ध होकर गमक होते हैं ? असंबदुध होकर गमक होना तो अशक्य है, अन्यथा गौ आदि शब्दसे अश्व आदि पदार्थका प्रतिभास होना भी स्वीकार करना पड़ेगा ? क्योंकि शब्दादिक पदार्थ के साथ संबद्ध हुए बिना ही गमक हुमा करते हैं ऐसा मान रहे हो ! यदि इस दोषको दूर करने के लिये दूसरा पक्ष स्वीकार करे कि पदार्थसे संबद्ध होकर ही शब्दादिक उस पदार्थके गमक हुआ करते हैं तो वे शब्दादिक लिंग [साधन] रूप ही सिद्ध हुए, एवं उससे उत्पन्न हुआ ज्ञान भी अनुमान ही कहलाया ? अभिप्राय यह हुआ कि शब्दादि कारणोंसे उत्पन्न होनेवाले ज्ञान अनुमान प्रमाणरूप ही सिद्ध होते हैं न कि अागमादि रूप । जैन-यह कथन अयुक्त है, इसतरह पदार्थसे संबद्ध होकर उसके गमक होने मात्रसे आगमादि ज्ञानोंको अनुमानमें अन्तर्भूत किया जाय तो प्रत्यक्षप्रमाणका भी अनुमानमें अन्तर्भाव हो जानेका प्रसंग आता है, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण भी अपने विषय में संबद्ध होकर ही उसका गमक होता है अन्यथा नहीं, यदि स्वविषय में संबद्ध हुए बिना गमक होना स्वीकार करेंगे तो सभी प्रमाताओंको सभी पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञान होने का अति प्रसंग आता है। बौद्ध–यद्यपि प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों प्रमाणोंमें विषयसे संबद्ध होना समान है किन्तु सामग्री भिन्न भिन्न होनेकी वजहसे इनमें पृथक् प्रमाणपना माना जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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