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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
“यदा स्वतः प्रमाणत्वं तदान्यन्न व मृग्यते । निवर्त्तते हि मिथ्यात्वं दोषाज्ञानादयत्नतः " ॥ [ मी० श्लो० सू० २ श्लो० ५२ ]
प्रागेव विहितोत्तरम् । न च दोषाज्ञानात्तदभावः, सत्स्वपि तेषु तदज्ञानसम्भवात् । सम्यग्ज्ञानोत्पादनशक्तिवैपरीत्येन मिथ्याप्रत्ययोत्पादनयोग्यं हि रूपं तिमिरादिनिमित्तमिन्द्रियदोषः, स चातीन्द्रियत्वात्सन्नपि नोपलक्ष्यते । न च दोषाः ज्ञानेन व्याप्ता येन तन्निवृत्त्या निवर्त्तेरन् । ततोऽयुक्तमिदम्
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कामलादि हैं उनका अभाव बतलाने को दूसरा प्रमाण प्रायेगा उसमें फिर शंका होगी कि इसमें कारण दोष का प्रभाव है कि नहीं फिर तीसरा ज्ञान उस प्रभाव को जानेगा, इत्यादि रूप से अनवस्था कैसे नहीं आवेगी ? अपितु प्रावेगी ही । तीसरे आदि प्रमाणों में उनके कारण दोषों को ग्रहण करने वाला ज्ञान नहीं रहता श्रतः तीसरादि ज्ञान प्रमाणभूत है और इसलिये अनवस्था भी नहीं आती ऐसा मीमांसकका कहना था उनके ग्रन्थ में भी ऐसा ही लिखा है यदा स्वतः प्रमाणत्वं इत्यादि अर्थात् जब प्रामाण्य स्वतः ही प्राता है तब अन्य संवादकादि की खोज नहीं करनी पड़ती है क्योंकि प्रमाण के विषय में मिथ्यात्व आदि दोष तो बिना प्रयत्न के दूर हो जाते हैं । यह श्लोक कथित बात तथा पहले की दोष ग्राहक ज्ञान के प्रभाव की बात इन दोनों के विषय में प्रथम ही उत्तर दे चुके हैं अर्थात् दोष का अभाव सिद्ध करने में अनवस्था दोष श्राता ही है ऐसा प्रतिपादन हो चुका है । तथा इस श्लोक में प्रागत "दोषाज्ञानात् " इस पद से जो यह प्रकट किया गया है कि दोष के प्रज्ञान से दोष का ( मिथ्यात्वादिका ) अभाव हो जाता है सो यह कथन सत्य नहीं है क्योंकि दोषों के प्रज्ञान से उनका अभाव नहीं हो सकता उनके होते हुए भी तो उनका अज्ञान रह सकता है । सम्यग्ज्ञान को उत्पन्न करने की जो शक्ति है उस शक्ति से विपरीत जो मिथ्याज्ञान है उसको उत्पन्न करने वाला इन्द्रिय दोष होता है यह अंधकार आदि के निमत्त से होता है ऐसा यह मिथ्याज्ञान को उत्पन्न करने वाला दोष अतीन्द्रिय होता है अतः वह मौजूद रहे तो भी दिखलायी नहीं पड़ता है । तथा दोषोंका ज्ञानके साथ अविनाभाव तो है नहीं जिससे कि ज्ञान के निवृत्त होने पर वे भी निवृत्त हो जाय । इस प्रकार दोषाभाव करवे में भी अनवस्था होना निश्चित है, इसलिये नीचे कहे गये इन नौ श्लोकों के अर्थ का विवेचन असिद्ध हो जाता है अब उन्हीं श्लोकार्थों को बताते हैं - तस्मात् प्रर्थात्
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