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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे एवं 'त्रिचतुरज्ञान' इत्याद्यपि स्वगृहमान्यम् ; 'कस्यचिद्विज्ञानस्य प्रामाण्यं पुनरप्रामाण्यं पुनः प्रमाणता' इत्यवस्थात्रयदर्शनाद्बाधके तबाधकादौ वावस्थात्रयमाशङ्कमानस्य परीक्षकस्य कथं नापरापेक्षा येनानवस्था न स्यात् ? 'प्राशङ्कत हि यो मोहात्' इत्याद्यपि विभीषिकामात्रम्, यतो नाभिशापमात्रात्प्रेक्षावतां प्रमाणमन्तरेण बाधकाशङ्का व्यावर्त्तते । न चास्या व्यावतक प्रमारणं भवन्मतेऽस्तीत्युक्तम् । कारण की उपलब्धि नहीं है ऐसा निश्चय करना अल्पज्ञानियों के लिये शक्य नहीं है । यदि प्रात्म संबंधी अनुपलब्धि बाधकाभावका निश्चय कराती है ऐसा कहा जाय तो यह कहना भी गलत है, इस आत्म संबंधी अनुपलब्धिकी परके चित्त वृत्तिके साथ अनैकान्तिकता आती है अर्थात् जो अपने को अनुपलब्ध हो वह नहीं है ऐसा नियम नहीं क्योंकि पर जीवोंका मन हमें अनुपलब्ध है तो भी वह मौजूद तो है ही, अत: प्रमाण में बाधककी अनुपलब्धि देखकर उसके प्रभावका निश्चय किया जाता है ऐसा कहना असिद्ध है । तथा प्रामाण्य लाने में जो बाधकाभावको हेतु माना गया है उस बाधकाभावका निश्चय संवाद से हो जायगा ऐसा कहना भी शक्य नहीं, क्योंकि अनवस्था दोष आता है-पूर्वज्ञान में बाधकाभावको जानने के लिये संवाद आया उस संवाद की सत्यता को [ या बाधकाभाव को ] जानने के लिये फिर अन्य संवाद पाया इस तरह अनवस्था आवेगी । इस प्रकार यहां तक प्रामाण्य बाधकाभाव हेतु से आता है ऐसी मान्यता का खण्डन किया। इसी तरह कारण के दोष का अभाव होने से प्रामाण्य स्वतः आता है ऐसा भाट्ट का दूसरा हेतु भी बाधकाभाव के समान सार रहित है अतः उसका निरसन भी बाधकाभाव के निरसन के समान ही समझना चाहिये । भावार्थ -जैसे बाधकाभाव में प्रश्न उठे हैं और उनका खण्डन किया गया है उसी प्रकार कारण दोष अर्थात् इन्द्रियों के दोषों का अभाव होने से प्रमाण में प्रामाण्य स्वतः आता है ऐसा मानने में प्रश्न उठते हैं और उनका खण्डन होता है । जैसे इन्द्रिय के दोषों का अभाव कैसे जाना जाय ? इन्द्रिय के दोषों को ग्रहण किये बिना उनका अभाव माना जाय तो भ्रान्त ज्ञान में भी प्रामाण्य आयेगा। तथा दोषाभाव का बोध कब होगा प्रवृत्ति के पहले कि पीछे ? पहले दोषाभाव का बोध होना माने तो वही भ्रान्तिज्ञान में सत्य होने का प्रसंग आता है, तथा प्रवृत्ति के बाद दोषाभावका ज्ञान होगा तो उससे लाभ क्या होगा कुछ भी नहीं, प्रवृत्ति तो हो चुकी । अर्थक्रिया होने पर सत्यता का निर्णय हो ही जाता है, इसलिये कारणदोष के अभाव से प्रामाण्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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