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प्रामाण्यवादः
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शङ्काः कथं ज्ञानमात्रात् 'अयमित्थमेवार्थः' इति निश्चिन्वन्ति प्रामाण्यं वास्य ? अन्यथैषां प्रेक्षावत्त्व हीयेत।
प्रमाणे बाधककारणदोषज्ञानाभावात्प्रामाण्यावसायः; इत्यप्यभिधानमात्रम् ; तदभावो हि बाधका ग्रहणे, तदभावनिश्चये वा स्यात् ? प्रथमपक्षे भ्रान्तज्ञाने तद्भावेपि तदग्रहणं कञ्चित्कालं दृष्टम्, एवमत्रापि स्यात् । 'भ्रान्तज्ञाने कञ्चित्कालमग्रहेपि कालान्तरे बाधकग्रहणं सम्यग्ज्ञाने तु कालान्तरेपि तदग्रहणम्' इत्ययं विभागः सर्व विदां नास्मादृशाम् । बाधकाभावनिश्चयोपि सम्यग्ज्ञाने प्रवृत्तेः
अभावका निश्चय होनेपर ? बाधकका अग्रहण होनेपर प्रमारगमें बाधक कारण का अभाव माना जाता है ऐसा प्रथम पक्ष स्वीकार करे तो भ्रांत ज्ञानमें बाधक कारण रहते हुये भी कुछ काल तक उसका ग्रहण नहीं होता है, ऐसा बाधकका अग्रहण प्रमाण भूत ज्ञानमें भी स्वीकार करना होगा।
मीमांसक -भ्रांत ज्ञानमें कुछ समय के लिये बाधकका अग्रहण भले ही हो जाय किन्तु कालांतर में तो बाधकका ग्रहण हो ही जाता है, सम्यग्ज्ञान में ऐसी बात नहीं है उसमें तो कालान्तरमें भी बाधकका अग्रहण ही रहेगा।
जैन-इसतरह का विभाग तो सर्वज्ञ ही कर सकते हैं, हम जैसे व्यक्ति नहीं कर सकते, अर्थात् इस विवक्षित ज्ञानमें आगामी कालमें कभी भी बाधकका ग्रहण नहीं होगा एवं इस ज्ञानमें तो बाधकका ग्रहण होवेगा ऐसा निर्णय करना असर्वज्ञको शक्य नहीं है।
द्वितीयपक्ष-बाधक के अभाव का निश्चय कर फिर उससे प्रमाणके प्रामाण्य का निर्णय होता है ऐसा माना जाय तो पुनः प्रश्न होता है कि उस प्रमाणभूत सम्यग्ज्ञान में बाधक के अभाव का निश्चय कब होता है ? प्रवृत्ति होने के पहले होता है अथवा उत्तरकाल में होता है ? प्रथम पक्ष कहे तो वही पहले की बात आवेगी कि भ्रान्त ज्ञान में भी प्रमाणता मानने का प्रसंग आवेगा । मतलब सम्यग्ज्ञान में बाधक के अभाव का निश्चय यदि प्रवृत्ति होने के पहले होता है तो इस तरह का निश्चय तो भ्रान्तज्ञान में भी होता है अत: वहां पर भी प्रामाण्य का प्रसंग आवेगा जो किसी को भी इष्ट नहीं है । अत: प्रवृत्ति के पहले बाधकाभाव के निश्चय होने मात्र से ज्ञान प्रामाणिक नहीं बन सकता। दूसरा पक्ष-सम्यग्ज्ञान में बाधकाभाव का निश्चय प्रवृत्ति के बाद होता है । ऐसा कहो तो भी सार नहीं है क्योंकि ज्ञान की विषय में प्रवृत्ति
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