SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 503
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५२ प्रमेयकमलमार्तण्डे भावनिमित्तं नान्यत् । संवादज्ञानं कि पूर्वज्ञान विषयं तदविषयं वा; इत्याद्यप्यसमीक्षिताभिधानम् ; न खलु संवादज्ञानं तद्ग्राहित्वेनास्य प्रामाण्य व्यवस्थापयति । किं तर्हि ? तत्कार्य विशेषत्वेनाग्न्यादिकमिव धूमादिकम् । सर्वप्राणभृतां प्रामाण्ये सन्देहविपर्ययासिद्ध श्च ; इत्यप्ययुक्तम् ; प्रेक्षापूर्वकारिणो हि प्रमाणाप्रमाणचिन्तायामधिक्रियन्ते नेतरे । ते च कासांञ्चिदज्ञा(ञ्चिज्ज्ञा)नव्यक्तीनां विसंवाददर्शनाज्जाता ज्ञान चाहे भिन्न विषय वाले हों चाहे अभिन्न विषय वाले हों, उनका अविनाभाव है तो संवाद्य संवादकपना होकर संवाद्य ज्ञान की प्रमाणता संवादकज्ञान से हो जाती है। संवादक ज्ञान पूर्व ज्ञान के विषय को जानने वाला है कि उस विषय को नहीं जानने वाला है इत्यादि प्रश्न भी अविचार पूर्वक किये गये हैं संवादक ज्ञान पूर्व ज्ञानके विषय को ग्रहण करनेवाला होता है इसलिये उस ज्ञानकी प्रमाणता को बतलाता हो सो तो बात नहीं है, किन्तु उस पूर्व ज्ञान के विषय के कार्य स्वरूप अर्थ क्रिया को देखकर उसमें प्रामाण्य स्थापित किया जाता है, जैसे कि धूम कार्य को देखकर अग्नि का अस्तित्व स्थापित किया जाता है । तथा जो भाट्ट ने यह कहा है कि विश्व में जितने प्राणी हैं उन सबके प्रामाण्य में सदेह तथा विपर्यय नहीं हुआ करता, ज्ञानके उत्पन्न होनेपर तो “यह पदार्थ इसीप्रकार का है" ऐसा निश्चय ही होता है, न कि संदेह या विपर्यय होता है इत्यादि ! सो इस पर हम जैनका कहना है कि जो बुद्धिमान होते हैं वे ही प्रमाण और अप्रमारण का विचार करने के अधिकारी होते हैं । अन्य सर्व साधारण पुरुष नहीं क्योंकि जो प्रेक्षापूर्वकारी होते हैं वे ही किन्हीं किन्हीं ज्ञान भेदों में विसंवाद को देखकर शंका शील हो जाते हैं कि सिर्फ ज्ञान मात्र से "यह पदार्थ इस प्रकार का ही है" ऐसा निश्चय कैसे हो सकता है और कैसे इस ज्ञान में प्रमाणता है ? इत्यादि विचार कर वे संवादक ज्ञान से उस अपने पूर्व ज्ञान की प्रमाणता का निर्णय कर लेते हैं। यदि इस तरह का विचार वे नहीं करें तो फिर उनमें बुद्धिमत्ता ही क्या कहलावेगी। तथा भाट्ट ने पूर्वपक्ष की स्थापना करते समय कहा है कि प्रमाण की प्रमाणता का निर्णय होने के विषय में तो यह बात है कि बाधक कारण और दोषका ज्ञान इनका जिसमें प्रभाव हो उस ज्ञान में प्रमाणता का निश्चय हो जाता है ? सो यह भी कथन मात्र है। आप यह बताइये कि प्रमाण में बाधक कारणका अभाव है इस बातको किस प्रकार जाना है ? बाधक के अग्रहण होनेपर अथवा बाधक के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy