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________________ ४३० प्रमेयकमलमार्तण्डे क्षत्वे आधेयप्रत्यक्षता नामातिप्रसङ्गात्। अथ व्यक्तिरूपे; तत्रापि किमात्मप्रत्यक्षेण गुणानामनुपलम्भः, परप्रत्यक्षेण वा ? प्रथमविकल्पे दोषारणामप्यसिद्धिः । न ह्यात्मीयं प्रत्यक्षं स्वचक्षुरादिगुणदोषविवेचने प्रवर्तते इत्येतत्प्राती तिकम् । स्पार्शनादिप्रत्यक्षेण तु चक्षुरादिसद्भावमात्रमेव प्रतीयते इत्यतोपि गुणदोषसद्भावासिद्धिः । अथ परप्रत्यक्षेण ते नोपलभ्यन्ते; तदसिद्धम् ; यथैव हि काचकामलादयो दोषाः परचक्षुषि प्रत्यक्षतः परेण प्रतीयन्ते तथा नैर्मल्यादयो गुणा अपि । जातमात्रस्यापि नैर्मल्याद्य पेतेन्द्रियप्रतीतेः तेषां गुणरूपत्वाभावे जातितै मिरिकस्याप्युपलम्भादिन्द्रियस्वरूपव्यतिरिक्ततिमिरादिदोषाणामप्यभावः । कथं वा रूपादीनां घटादिगुणस्वभावता यह पक्ष खण्डित हो जाता है । दूसरा पक्ष जो व्यक्तिरूप इन्द्रिय है उसमें गुणों का प्रभाव है । ऐसा कहो तो हम आपसे पूछते हैं कि यह बात प्राप किस प्रमाण से सिद्ध करते हो ? अपने ही प्रत्यक्षज्ञान से या दूसरे पुरुष के प्रत्यक्षज्ञान से ? यदि अपने प्रत्यक्ष से उनका प्रभाव सिद्ध करते हो तो दोषों का अभाव भी सिद्ध हो जायगा, क्योंकि अपना निज का प्रत्यक्षज्ञान निजी (खुद के) चक्षु अादि इन्द्रियों के गुण या दोषों को जानता हो या उनका विवेचन करता हो ऐसा प्रतीत नहीं होता, अपनी आँख का काजल अपने को नहीं दिखता ऐसी कहावत भी है। स्पार्शन प्रादि प्रत्यक्ष के द्वारा यदि आँख' आदि का ज्ञान होता है तो भी उससे मात्र उन नेत्रादिक का सद्भाव ही सिद्ध होता है, उस स्पार्शन प्रत्यक्ष से उनके गुण और दोषों का सद्भाव तो सिद्ध नहीं होता है । यदि कहा जावे कि पर व्यक्ति के प्रत्यक्षज्ञान से वे इन्द्रियोंके गुण उपलब्ध नहीं होते; सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि जैसे पराये व्यक्ति के नेत्र में काचबिन्दु, पीलिया आदि दोष हैं उनका प्रत्यक्ष होता है वैसे ही निर्मलता आदि गुण भी प्रत्यक्ष से प्रतीत होते हैं । अतः पर के द्वारा नेत्रादि के गुण प्रत्यक्ष नहीं होते हैं ऐसा कहना असत् ठहरता है। शंका-नेत्र में जो निर्मलता आदि होती है वह तो उसके जन्म के साथ ही साथ दिखायी देती है अर्थात् नेत्रादि इन्द्रियां नैर्मल्यादि गुरण सहित ही पैदा होती हैं, अत: निर्मलतादि को गुण नहीं कह सकते हैं । समाधान- ऐसा नहीं कहना, क्योंकि कोई जन्मसे तिमिरदोष युक्त है अर्थात् जन्मान्ध है उसके नेत्रेन्द्रियका स्वरूप तिमिर दोष से अतिरिक्त कुछ भी नहीं दिखायी देता अत: उस तिमिर दोषको नेत्रेन्द्रियका स्वरूप ही मानना चाहिये, इस तरह भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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