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प्रामाण्यवादः
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तत्र ज्ञानान्तरोत्पादः प्रतीक्ष्यः कारणान्तरात् । यावद्धि न परिच्छिन्ना शुद्धिस्तावदसत्समा ।। २ ।। तस्यापि कारणे शुद्ध तज्ज्ञानस्य प्रमाणता। तस्याप्येवमितीत्थं च न क्वचिद्व्यवतिष्ठते ॥३॥
[ मी० श्लो० सू० २ श्लो० ४६-५१ ] इति अत्र प्रतिविधीयते । यत्तावदुक्तम् – 'प्रत्यक्षं न तान्प्रत्येतु समर्थम्' इति ; तन्द्रिये शक्तिरूपे, व्यक्तिरूपे वा तेषामनुपलम्भेनाभावः साध्यते ? प्रथमपक्षे-गुणवदोषाणामप्यभावः । नह्याधाराप्रत्य
उसकी शुद्धि-[सत्यता] नहीं जानी है तबतक वह असत् समान ही रहेगा, अत: उसकी सत्यता का निर्णय भी उसके कारणगुण की शुद्धि से ही होवेगा, तभी वह प्रमाण प्रामाण्य सहित कहलायेगा, फिर वह तीसरा ज्ञान भी कारणगुण की शुद्धि जानकर ही प्रवृत्त होगा, इस प्रकार किसी भी ज्ञान में प्रामाण्य व्यवस्थित नहीं हो सकेगा, न प्रमाणों में स्वकार्य के करने की क्षमता आयेगी । इस प्रकार हम भाट्ट ने यह सिद्ध किया कि प्रमाण को अपने प्रामाण्य की उत्पत्ति में और ज्ञप्ति तथा स्वकार्य में पर की अपेक्षा नहीं होती है, अत: प्रमाण में स्वतःप्रामाण्य प्राता है।
जैन-हम जैन भाट्ट के इस लम्बे चौड़े पूर्व पक्ष का सविस्तार खण्डन करते हैं
भाट्ट ने सबसे पहिले कहा है कि “इन्द्रियों के गुणों को प्रत्यक्षप्रमाण जानने में सक्षम नहीं है" सो इस पर हम उनसे पूछते हैं कि शक्तिरूप-[क्षयोपशमरूप] इन्द्रिय में गुणों को अनुपलब्धि होने से उनका अभाव मानते हो या व्यक्तिरूप (बाह्येन्द्रिय आँख की पुतली प्रादि में) इन्द्रिय में गुणों की अनुपलब्धि होने से गुणों का अभाव मानते हो ? प्रथमपक्ष-शक्तिरूप इन्द्रिय में गुणों का अभाव मानते हैं तो इस मान्यता में केवल गुणों का ही प्रभाव सिद्ध नहीं होगा किन्तु साथ ही दोषों का अभाव भी सिद्ध हो जायगा, क्योंकि शक्तिरूप इन्द्रिय में जैसे गुण उपलब्ध नहीं हो रहे हैं, वैसे दोष भी उपलब्ध नहीं होते हैं । तथा-आधार के अप्रत्यक्ष रहने पर प्राधेय का प्रत्यक्ष होना भी शक्य नहीं है, ऐसा ही नियम है । अतः आधार जो शक्तिरूप इन्द्रिय है प्रत्यक्ष नहीं होने से उसके आधेयरूप गुणों का प्रत्यक्ष होना भी बनता नहीं, अन्यथा अतिप्रसङ्ग उपस्थित होगा। इस प्रकार शक्तिरूप इन्द्रियों में गुण उपलब्ध नहीं होते,
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