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प्रामाण्यवादः
"एवं त्रिचतुरज्ञानजन्मनो नाधिका मतिः ।
प्रार्थ्यते तावतैवेयं स्वतः प्रामाण्यमश्नुते ।। १ ।। " [मी० श्लो० सू० २ श्लो० ६१]
योऽप्यनुत्पद्यमानः संशयो बलादुत्पाद्यते सोप्यर्थक्रियार्थिनां सर्वत्र प्रवृत्त्यादिव्यवहारोच्छेदकारित्वान्न युक्तः । उक्तञ्च
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"प्राशङ्क ेत हि यो मोहादजातमपि बाधकम् । स सर्वव्यवहारेषु सशयात्मा क्षयं व्रजेत् ।। १ ।। " [
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इनसे अधिक ज्ञानों की जरूरत नहीं पड़ती है, इतने से ही कार्य हो जाता है और प्रामाण्य स्वतः ही श्रा जाता है ।
जैनादिक का कहना है कि प्रमारण से पदार्थ का ज्ञान होने पर भी उस विषय में संशय हो जाय कि यह ज्ञान अर्थक्रिया में समर्थ ऐसे पदार्थ को विषय कर रहा है या विपरीत किसी पदार्थ को ? सो ऐसी जबरदस्ती संशय को उत्पन्न होने की आशंका करना ठीक नहीं है क्योंकि ऐसे तो अर्थक्रिया के इच्छुक पुरुष किसी भी पदार्थ में प्रवृत्ति नहीं कर सकेंगे, इस तरह से तो फिर प्रवृत्ति या निवृत्ति का व्यवहार ही समाप्त हो जायगा, कहने का अभिप्राय यह है कि प्रमाण के विषय में संशय नहीं रहता, ऐसा हम मानते हैं । किन्तु जैन व्यर्थ उस विषय में संशय हो जाने की आशंका करते हैं । इससे क्या होगा कि किसी भी पदार्थ में ग्रहण आदि की प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी क्योंकि संशय बना ही रहेगा ? यही बात हमारे ग्रन्थ में कही है- जो व्यक्ति प्रमाण के प्रामाण्य में बाधक कारण नहीं होते हुए भी व्यर्थ की बाधक होने की शंका करे तो वह संशयी पुरुष नष्ट ही हुआ समझना चाहिये, क्योंकि वह सभी व्यवहार कार्यों में प्रवृत्त ही नहीं हो सकेगा । इस प्रकार निश्चित होता है कि प्रमाण अपनी प्रामाणिकता में अन्य की अपेक्षा नहीं रखता है । तथा वेद शास्त्र के निमित्त से जो ज्ञान होता है उस ज्ञान में भी स्वतः प्रामाण्य है ऐसा निश्चय करना चाहिये, क्योंकि वेद अपौरुषेय होने से ( पुरुष के द्वारा बनाया हुआ नहीं होने से ) दोष रहित है, इसलिये जैसे अनुमान, प्राप्तवचनरूप आगम, इन्द्रियज्ञान ये सब प्रमाण स्वतः प्रामाण्य स्वरूप है वैसे वेद जनित बुद्धि भी स्वतः प्रमाणभूत है । कहा भी है- वेद का पठन, मनन आदि के करने से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह स्वतः प्रमाणभूत है, क्योंकि वह
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