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प्रमेय कमलमार्त्तण्डे
प्रमाणाप्रमाणयोरुत्पत्तौ तुल्यरूपत्वान्न संवादविसंवादावन्तरेण तयोः प्रामाण्याप्रामाण्यनिश्चय इति च मनोरथमात्रम् ; अप्रमाणे बाधककारणदोषज्ञानयोरवश्यं भावित्वादप्रामाण्यनिश्चयः, प्रमाणे तु तयोरभावात्प्रामाण्यावसायः ।
यापि तत्तुल्यरूपेऽन्यत्र तयोर्दर्शनात्तदाशङ्का; सापि त्रिचतुरज्ञानापेक्षामात्रान्निवर्त्तते । न च तदपेक्षायां स्वतः प्रामाण्यव्याघातोऽनवस्था वा; संवादकज्ञानस्याप्रामाण्यव्यवच्छेदे एव व्यापारादन्यज्ञानानपेक्षरणाच्च । तदुक्तम्
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अपेक्षा विना ही करता रहता है, पश्चात् जिज्ञासु पुरुष द्वारा संवादरूप ज्ञानोंसे उसका ग्रहण हो जाता है ।
शंका - प्रमाण और अप्रमाण उत्पत्ति के समय तो समान ही रहते हैं - उनमें संवाद और विसंवाद के विना प्रामाण्य और अप्रामाण्य का निश्चय होना शक्य नहीं है ?
समाधान - यह कथन मनोरथमात्र है, अप्रमाण तो बाधककारण और दोषों सेजन्य हुआ करता है अतः उनका ज्ञान होना जरूरी है, उसीसे अप्रमाण में अप्रामाण्य का निश्चय होता है । प्रमाण में ऐसी बात नहीं है अतः प्रामाण्य को जानने के लिये बाधककारण और दोषों के ज्ञानों की आवश्यकता नहीं रहती है । प्रमाण के प्रामाण्य का निश्चय तो अपने श्राप हो जाता है ।
प्रमाण ज्ञानके समान मालूम पड़नेवाला जो श्रप्रमाणभूत ज्ञान है उसमें संशय तथा विपर्ययपना देखा जाता है अतः कभी कभी प्रमाण ज्ञान भी श्रप्रामाण्यनेकी शंका हो सकती है किन्तु वह शंका आगे के तीन चार ज्ञानों की अपेक्षा लेकर ही समाप्त हो जाया करती है । इस पर कोई कहे कि आगे के ज्ञानोंकी अपेक्षा मानेंगे तो स्वतः प्रामाण्य श्रनेका जो सिद्धांत है वह खतम होगा, तथा अनवस्था दोष भी आयेगा ? सो ऐसी बात नहीं है, क्योंकि आगेके तीसरे या चौथे ज्ञानकी जो अपेक्षा बतायी वे ज्ञान इतना ही कार्य करते हैं कि प्रथम या द्वितीय ज्ञानके अप्रामाण्यताका व्यवच्छेद [नाश ] करते हैं तथा वे ज्ञान अपनी सत्यता के लिये अन्यकी अपेक्षा भी नहीं रखते हैं ।
मीमांसाश्लोक वार्तिक में लिखा है, ज्ञान की प्रमाणता में शंका प्राजाय तो उसको तीन चार ज्ञान [ संवादक ज्ञान प्राकर ] उत्पन्न होकर दूर कर दिया करते हैं,
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