________________
४०८
प्रमेय कमलमार्तण्डे
परतश्च अभ्यासानभ्यासापेक्षया ।
ये तु सकलप्रमाणानां स्वतः प्रामाण्यं मन्यन्ते तेऽत्र प्रष्टव्या -किमुत्पत्तौ, ज्ञप्तौ, स्वकार्ये वा स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यं प्रार्थ्यते प्रकारान्तरासम्भवात् ? यद्य त्पत्तौ, तत्रापि 'स्वतः प्रामाण्यमुत्पद्यते' इति कोर्थः ? किं कारणमन्तरेणोत्पद्यते, स्वसामग्रीतो वा, विज्ञानमात्रसामग्रीतो वा गत्यन्तराभावात् । प्रथमपक्षे-देशकालनियमेन प्रतिनियतप्रमाणाधारतया प्रामाण्यप्रवृत्तिविरोधः कार्यरूप प्रवृत्ति है-अर्थपरिच्छित्ति है वह तो अभ्यासदशा में स्वतः और अनभ्यासदशा में पर से आया करती है।
मीमांसक का एक भेद जो भाट्ट है वह संपूर्ण प्रमाणों में प्रमाणता स्वतः ही मानता है। उनसे हम जैन पूछते हैं कि उत्पत्ति की अपेक्षा स्वत: प्रमाणता होती है अथवा जाननेरूप ज्ञप्ति की अपेक्षा स्वतः प्रमाणता होती है या प्रमाण की जो स्वकार्य में (अर्थपरिच्छित्ति में) प्रवृत्ति होती है, उसकी अपेक्षा स्वत: प्रमाणता होती है, इन तीनों प्रकारों को छोड़कर और कोई स्वतः प्रामाण्य का साधक निमित्त नहीं हो सकता है । यदि उत्पत्ति की अपेक्षा स्वतः प्रामाण्य माना जाय तो उसमें भी यह शंका होती है कि "प्रामाण्य स्वतः होता है" सो इसका क्या अर्थ है ? क्या वह कारण के विना उत्पन्न होता है यह अर्थ है ? या वह अपनी सामग्री से उत्पन्न होता है ? या कि विज्ञानमात्र सामग्री से उत्पन्न होता है यह अर्थ है ? इन तीन प्रकारों को छोड़कर अन्य और कोई ‘स्वत: प्रामाण्य उत्पन्न होता है" इस वाक्य का अर्थ नहीं निकलता है। प्रथमपक्ष के अनुसार कारण के विना ही प्रमाण में प्रमाणता उत्पन्न होती है यही प्रामाण्य का "स्वतः प्रामाण्य उत्पन्न होना कहलाता है' ऐसा कहो तो देश और काल के नियम से प्रतिनियतप्रमाणभूत आधार से प्रामाण्य की जो प्रवृत्ति होती है वह विरुद्ध होगी, क्योंकि जो स्वतः ही उत्पन्न होता है उसका कोई निश्चित आधार नहीं रहता है, यदि रहता है तब तो वह आधार के विना-अर्थात् कारण के विना उत्पन्न हुआ है ऐसा कह ही नहीं सकते, मतलब-यदि प्रामाण्य विना कारण के यों ही उत्पन्न होता है तो उस प्रामाण्य के सम्बन्ध में यह इसी स्थान के प्रमाण का या इसी समय के प्रमाण का यह प्रामाण्य है ऐसा कह नहीं सकते हैंदूसरा पक्ष –यदि अपनी सामग्री से उत्पन्न होने को स्वतः प्रामाण्य कहते हो-तब तो इस पक्ष में सिद्धसाध्यता है-(सिद्ध को हो पुनः सिद्ध करना है) क्योंकि विश्व में जितने भी पदार्थ हैं उन सबकी उत्पत्ति अपनी अपनी सामग्री से ही हया करती है,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org