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प्रामाण्यवादः
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प्रकाशकता प्रत्यक्षता वा नोपपद्यते । तथा प्रमाणस्यापि प्रत्यक्षतामन्तरेण तत्प्रतिभासिनोर्थस्य प्रत्यक्षता न स्यादित्युक्त प्राक् प्रबन्धेनेत्युपरम्यते । तदेवं सकल प्रमाणव्यक्तिव्यापि साकल्येनाप्रमाणव्यक्तिभ्यो व्यावृत्तं प्रमाण प्रसिद्ध स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणलक्षणम् । ननूक्तलक्षणप्रमाणस्य प्रामाण्य स्वतः परतो वा स्यादित्याशङ्कय प्रतिविधत्ते ।
तत्प्रामाण्यं स्वतः परतश्च ।। १३ ॥ तस्य स्वापूर्वार्थेत्यादिलक्षणलक्षितप्रमाणस्य प्रामाण्यमुत्पत्तौ परत एव । ज्ञप्तौ स्वकार्ये च स्वतः
हुए विना उसके द्वारा प्रतीत हुए पदार्थ में भी प्रत्यक्षता नहीं हो सकती, इस विषय पर बहुत अधिक विवेचन पहिले कर पाये हैं सो अब इस प्रकरण का उपसंहार करते हैं । इस प्रकार श्री माणिक्यनंदी प्राचार्य के द्वारा प्रतिपादित प्रथम श्लोक के अनन्तर ही कहा गया प्रमाण का "स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाण" यह लक्षण और उस लक्षण सम्बंधी विशेषणों का सार्थक विवेचन, करने वाले ११ सूत्रों की श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने बहुत ही विशद व्याख्या की है, इस विशद विस्तृत व्याख्या से यह अच्छी तरह सिद्ध किया जा चुका है कि प्रमाण का यह जैनाचार्यद्वारा प्रतिपादित लक्षण प्रमाण के संपूर्ण भेदों में सुघटित होता है, कोई भी प्रमाण चाहे वह प्रत्यक्ष हो या परोक्ष हो उन सब में यह लक्षण व्यापक है, अतः अव्याप्ति नामक दोष(लक्षण दोष)-इसमें नहीं है । जितने जगत में अप्रमाणभूत ज्ञान हैं उनमें या कल्पित सन्निकर्ष, कारकसाकल्य आदि अप्रमाणों में यह लक्षण नहीं पाया जाता है, अत: अतिव्याप्ति दूषण से भी यह लक्षण दूर है, अतः यह प्रमाणका लक्षण सर्वमान्य निर्दोषलक्षण सिद्ध होता है।
शंका- ठीक है-अापने स्वपर को जाननेवाले ज्ञान को प्रमाण माना है, यह तो समझ में आ गया, अब आप यह बतावें उस लक्षणप्रसिद्ध प्रमाण में प्रमाणता स्वतः होती है कि पर से होती है ? ऐसी आशंका के समाधानार्थ अग्रिम सूत्र कहा जाता है
"तत्प्रामाण्यं स्वत: परतश्च" ॥ १३ ॥
सूत्रार्थ-स्वपर व्यवसायी जो प्रमाण है उसमें प्रमाणता कहीं पर स्वतः होती है और कहीं पर परसे भी होती है । प्रमाण में प्रमाणता की उत्पत्ति तो पर से ही होती है । और उसमें प्रमाणता को जाननेरूप जो ज्ञप्ति है तथा उसकी जो स्व
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