________________
प्रमेयकमलमार्तण्डे
मैव, तद्र पतया चास्य परोक्षता तत्प्रकाशनलक्षणकार्यानुमेयत्वात्तयोः । सकलभावानां सामर्थ्यस्य कार्यानुमेयतया निखिलवादिभिरभ्युपगमात् । अर्वाग्दृशां चान्तर्बहिर्वार्थो नैकान्ततः प्रत्यक्ष इत्यत्राखिलवादिनामविप्रतिपत्तिरेवेत्युक्तदोषानवकाशतया प्रमाणस्य प्रत्यक्षताप्रसिद्धरलं विवादेन ।।
में कुछ भी दोष नहीं आते हैं, वह कथंचित् स्वानुभव प्रत्यक्ष भी है यह निर्विवाद सिद्ध हुना, अब इस विषय में ज्यादा नहीं कहते हैं ।
भावार्थ-नैयायिक वैशेषिक के ज्ञानान्तर वेद्य ज्ञानवाद का यहां पर प्रभाचन्द्र आचार्य ने अपने तीक्ष्ण युक्ति पूर्ण वचनरूपकुठार के द्वारा खण्ड खण्ड कर दिया है, ज्ञान स्व को नहीं जानता है; दूसरे ज्ञान से ही वह जाना जाता है तो ऐसी स्थिति में उसके द्वारा जाना हुआ पदार्थ अपने लिये अनुभव में नहीं आ सकता है, दीपक स्वयं अप्रकाशित रहकर दूसरों को उजाला दे नहीं सकता है । दर्पण स्वयं दिखाई न देवे और उसमें प्रतिबिम्ब हुआ पदार्थ दिखे, ऐसी बात होना सर्वथा असंभव है । यौग का यह कदाग्रह है कि जो प्रमेय होगा वह अन्य से ही जाना जायगा, सो यह बात सुखसंवेदन के द्वारा कट जाती है, सुखानुभव प्रमेय होकर भी स्वसंविदित है, कहीं सुख दुःख का वेदन पर से ज्ञात होता है क्या ? अर्थात् नहीं। उसी प्रकार ज्ञान भी पर से नहीं जाना जाता; किन्तु स्वयं संवेदित होता है यह सिद्ध हुआ । ज्ञान को स्वपर प्रकाशक मानने में जो अनवस्था दूषण यौग ने उपस्थित किये हैं वे सब हास्यास्पद हैं । अर्थात् ज्ञान में स्व और पर को जानने की जो दो शक्तियां हैं वे ज्ञान से भिन्न हैं तो एक ही आत्मा में तीन स्वसंविदित ज्ञान मानने पड़ेगे, इस तरह अनवस्था होगी, तथा ज्ञान और उन दो शक्तियों को अभिन्न मानें तो या तो ज्ञान रहेगा या शक्तियां रहेंगी इत्यादि दोष दिये थे, किन्तु ऐसे दोष तो सर्वथा भेद या अभेदपक्ष अङ्गीकार करने वालों के ऊपर आते हैं, जैन तो ज्ञान और ज्ञान की उन दोनों शक्तियों को कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न मानते हैं । अतः उनके ऊपर कोई दोष लागू हो ही नहीं सकता है, ज्ञान में जो स्व पर को जानने की शक्ति है वह कोई इन्द्रिय प्रत्यक्ष होनेवाली चीज नहीं है वह तो सिर्फ कार्यानुमेय है । अर्थात् स्व और पर को जाननेरूप कार्य को देखकर अनुमान लगाया जाता है कि ज्ञान में स्वपरग्राहकता है । संपूर्णवस्तुओं की शक्तियां अल्पज्ञानी को अनुमानगम्य ही हुआ करती हैं । प्रत्यक्षगम्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org