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ज्ञानान्तरवे द्यज्ञानवादः
त्स्वभावतद्वतोर्भेदाभेदं प्रत्यनेकान्तात् । ज्ञानात्मना हि स्वभावतद्वतोरभेदः, स्वपरप्रकाशस्वभावात्मना च भेद इति ज्ञानमेवाभेदोऽतो भिन्नस्य ज्ञानात्मनोऽप्रतीतेः । स्वपरप्रकाशस्वभावे च भेदस्तव्यतिरिक्तयोस्तरप्रतीयमानत्वादित्युक्तदोषानवकाशः। कल्पितयोस्तु भेदाभेदैकान्तयोस्तद्द षणप्रवृत्तौ सर्वत्र प्रवृत्तिप्रसङ्गात् न कस्यचिदिष्ट तत्त्वव्यवस्था स्यात् । स्वपरप्रकाशस्वभावौ च प्रमाणस्य तत्प्रकाशनसामर्थ्य
हमारे यहां अनेकान्त है । कथंचित्-किसी संज्ञा प्रयोजन आदि की अपेक्षा से स्वभाव
और स्वभाववान में ( ज्ञान और ज्ञान के स्वभाव में ) भेद है तथा-कथंचितु द्रव्य या प्रदेशादि की अपेक्षा से उनमें अभेद भी है। ऐसा एकान्त नियम नहीं है कि वे दोनों सर्वथा भिन्न ही हैं या सर्वथा अभिन्न ही हैं । ज्ञानपने की अपेक्षा देखा जाय तो स्वभाव और स्वभाववान् में अभेद है और स्व और पर के प्रकाशन की अपेक्षा उनमें भेद भी है । इस तरह से तो वे सब ज्ञान ही हैं, इसलिये ज्ञान को छोड़ कर और कोई स्वपर प्रकाशन दिखायी नहीं दे रहा है, ज्ञान स्वयं ही उसरूप है, स्वपर प्रकाशन जो स्वभाव हैं उनमें सर्वथा भेद भी नहीं है । इस प्रकार स्वभाव और स्वभाववान को छोड़कर कोई चीज नहीं है । ज्ञान स्वभाववान् है और स्वपर प्रकाशन उसका स्वभाव है, यह सिद्ध हुमा । इस प्रकार अपेक्षाकृत पक्ष में कोई भी अनवस्था प्रादि दोष नहीं आते हैं कल्पनामात्र से स्वीकार किये गये जो भेद और अभेद पक्ष हैं अर्थात् कोई स्वभाव या शक्ति से स्वभाववान् या शक्तिमान् को सर्वथा भिन्न ही मानता है, तथा कोई जड़बुद्धि वाला अभेदवादी उन स्वभाव स्वभाववान् में अभिन्नता ही कहता है, उन काल्पनिक एकान्त पक्ष के दूषण सच्चे स्याद्वाद अनेकान्तवाद में नहीं प्रवेश कर सकते हैं। यदि काल्पनिक पक्ष के दूषण सब पक्ष में दिये जायेंगे तो किसी के भी इष्टतत्त्व की सिद्धि नहीं हो सकती है, ज्ञान या प्रमाण में जो अपने और पर को जानने का सामर्थ्य है वही स्वपर प्रकाशन कहलाता है पौर यह जो सामर्थ्य है वह परोक्ष है, अपने और पर के जाननेरूप कार्य को देखकर उस सामर्थ्य का अनुमान लगाया जाता है कि ज्ञान में अपने और पर को जानने की शक्ति है, क्योंकि वैसा कार्य हो रहा है, इत्यादि संसार में जितने भी पदार्थ हैं उन सभी की सामर्थ्य मात्र कार्य से ही जानी जाती है, शक्ति को प्रत्यक्ष से हम जैसे नहीं जान सकते ऐसा सभी वादी और प्रतिवादियोंने स्वीकार किया है, हम जैसे अल्पज्ञानी अन्तरङ्ग आत्मा आदि सूक्ष्म पदार्थ और बहिरंग जड़ स्थूल पदार्थ इन दोनों को पूर्ण रूप से प्रत्यक्ष नहीं जान सकते हैं । इस विषय में तो किसी भी वादो को विवाद नहीं है । इस तरह ज्ञान के स्वपर प्रकाशक विषय
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