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________________ ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवाद: स्तदप्यसमीचीनम् ; तत्प्रकाशो हि स्वपररूपोद्योतनरूपोऽभ्युपगम्यते । स च क्वचिद्बोधरूपतया क्वचित्तु भासुर रूपतया वा न विरोधमध्यास्ते । ननु 'येनात्मना ज्ञानमात्मानं प्रकाशयति येन चार्थ तौ चेत्ततोऽभिन्नौ; तहि तावेव न ज्ञानं पदार्थ को जानने की क्षमता रखता है ऐसा दीपक के समान स्वपर प्रकाशक ज्ञान मानना चाहिये । ज्ञान को स्व और पर को जाननेवाला नहीं मानने-सिर्फ पर को ही जानने वाला मानते हैं तब किसी भी तरह वस्तुव्यवस्था नहीं बन सकती है। क्योंकि ज्ञानका स्वरूप ही यदि विपरीत माना तो उस ज्ञान के द्वारा जाने गये पदार्थों का स्वरूप भी किस तरह निर्दोष सिद्ध होगा; अर्थात नहीं होगा। शंका-ज्ञान स्वपर को जाननेवाला है इस बात को सिद्ध करने के लिये दीपक का उदाहरण दिया है-सो जान स्व को और पर को प्रकाशित करता है, यदि यही ज्ञान का स्वरूप है तो प्रदीप का दृष्टान्त साध्यधर्म से विकल हो जाता है। क्योंकि दीपक में बोधपना तो है नहीं, यदि दीपक का उदाहरण भासुरपने के लिये देते हो तो वैसा भासुरपना ज्ञान ( दार्टान्त ) में नहीं पाया जाता है अत: उसको साध्यपना होना मुश्किल हो जाता है, अन्यथा प्रत्यक्षबाधा आती है। भावार्थ-दीपक के समान ज्ञान है तो इसका मतलब ज्ञान का धर्म जानना क्या दीपक में है ? नहीं है, उसीप्रकार दीपक का धर्म भासुरपना क्या ज्ञानमें है ? नहीं है, इसलिये दीपक का उदाहरण ठीक नहीं बैठता है ऐसी कोई शंका करे तो इसका समाधान इस प्रकार से है -यहां जो दीपक को दृष्टान्त कोटि में रखा गया है वह इस बात को प्रकट करने के लिये रखा गया है कि जिस प्रकार दीपक को प्रकाशित करने के लिये अन्य दीपक की जरूरत नहीं पड़ती है क्योंकि वह स्वतः प्रकाशशील है और इसी से वह घटपटादिकों का प्रकाशक होता है इसी प्रकार ज्ञान भी स्वतः प्रकाशशील है, उसे अपने आपको प्रकाशित करने के लिये अन्य ज्ञान की जरूरत नहीं होती, दीपक में यह जो प्रकाशपना है वह भासुररूप है और ज्ञान में यह स्वपर को जाननेरूप है । अतः कोई विरोध जैसी बात नहीं है । अब यहां पर यौग अपना लम्बा चौड़ा वक्तव्य उपस्थित करते हुए कहते हैं कि आप जैन जो ज्ञान को स्व और पर का प्रकाशक मानते हैं सो यह मानना ठीक नहीं है-देखिये-ज्ञान जिस स्वभाव से अपने आपको जानता है और जिस स्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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