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निपातः स्यात् । पुनरत्राप्यनुमानान्तरात्तत्सिद्धावनवस्था । इत्युक्तदोषपरिजिहीर्षया प्रदीपवत्स्वपरप्रकाशनशक्तिद्वयात्मकं ज्ञानमभ्युपगन्तव्यम् । तदपह्नवे वस्तुव्यवस्थाभावप्रसङ्गात् ।
प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
ननु स्वपर प्रकाशो नाम यदि बोधरूपत्वं तदा साध्यविकलो दृष्टान्तः प्रदीपे बोधरूपत्वस्यासम्भवात् । अथ भासुररूपसम्बन्धित्वं तस्य ज्ञानेऽत्यन्तासम्भवात्कथं साध्यता ? अन्यथा प्रत्यक्षबाध
चौथापक्ष - अदृष्ट इतना ही होनेसे चतुर्थ आदि अधिकज्ञान तृतीयादि ज्ञानों को जानने के लिये उत्पन्न नहीं होते हैं और इसी कारण से अनवस्था दोष नहीं होता है, अथवा श्रदृष्ट ही अनवस्था दोष को रोक देता है । सो ऐसा योग का कहना भी गलत है, यदि अदृष्ट के कारण ही अनवस्था रुकती है अर्थात् दृष्ट की ऐसी सामर्थ्य है तो वह स्वसंविदित ज्ञान को ही पैदा क्यों नहीं कर देता, अनवस्थादोष आने पर उसे हटाने की अपेक्षा वह दोष उत्पन्न ही नहीं होने अर्थात् प्रथम ही स्व पर को जाननेवाला ज्ञान ही पैदा कर दे यही श्रेयस्कर है, फिर किसलिये यह मिथ्या प्राग्रह करते हो कि ज्ञान तो अन्यज्ञान से ही जाना जाता है, इस प्रकार यहां तक प्रत्यक्षप्रमाण से धर्मी या पक्षस्वरूप जो ज्ञान है उसकी सिद्धि नहीं होती है यह निश्चित किया, मतलब -शुरु में योग की तरफ से अनुमान प्रस्तुत किया गया था कि
दे
"ज्ञानं ज्ञानान्तरवेद्यं प्रमेयत्वात् घटादिवत् " इस अनुमान में जो ज्ञान पक्ष है वह तो प्रत्यक्षप्रमाण से सिद्ध नहीं हुआ, अब अनुमानप्रमाण से वही पक्षरूप जो ज्ञान है उसे सिद्ध करना चाहे तो भी वह सिद्ध नहीं होता है ऐसा बताते हैं-धर्मी ज्ञान के सद्भाव को सिद्ध करनेवाला जो अनुमान है वह स्वयं ही प्रसिद्ध है । यदि कोई अनुमान इस ज्ञान को सिद्ध करनेवाला हो तो उसमें जो भी हेतु होगा वह प्राश्रयासिद्ध आदि दोषों से युक्त होगा, अतः उस हेतु को सिद्ध करने के लिये फिर एक अनुमान उपस्थित करना पड़ेगा, इस तरह से अनवस्थाचमू सामने खड़ी हो जावेगी, इस प्रकार यहां तक ज्ञान को ज्ञानान्तरवेद्य मानने से कितने दोष प्राते हैं सो बताये - अर्थात् ईश्वर का ज्ञान भी यदि स्वसंवेद्य नहीं है तो वह ईश्वर सर्वज्ञ नहीं रहता है और उसके ज्ञानको स्वसंवेद्य कहते हैं तो प्रमेयत्व हेतु साक्षात् ही अनैकान्तिक दोषयुक्त हो जाता है । तथा सुखसंवेदन के साथ भी यह हेतु व्यभिचरित होता है, इत्यादिरूप से स्थान स्थान पर अनेक दोष सिद्ध किये गये हैं । अतः उन दोषों को दूर करने के लिये योग को स्वसंवेदनस्वरूपवाला ज्ञान स्वीकार करना चाहिये, जो दो शक्ति युक्त है- अपने को और पर
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