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प्रमेयकमलमार्तण्डे
दिविषये ज्ञानोत्पत्तिः । न च तज्ज्ञानसन्निधानेऽवश्यं साधनादिना सन्निहितेन भवितव्यमसिद्धादेरभावापत्तेः । सन्निहितेपि वा जिघृक्षिते धमिण्यगृहीते कथं विषयान्तरे ग्रहणाकांक्षा ? कथं वा तज्ज्ञानमेकार्थसमवेतत्वेन सन्निहितं विहाय तद्विपरीते दृष्टान्तादौ ज्ञानं ज्ञायेत् ?
जैन-यह समाधान असत्य है । प्रथम तो यह बात है कि ईश्वर यदि परोपकार के कारण अनवस्था को रोक भी देवे तो उससे उसका क्या मतलब निकलेगा, क्योंकि धर्मी का ग्रहण अर्थात् जब उस प्रथम अर्थज्ञान को जाननेवाले ज्ञान का ग्रहण ही नहीं होता तो उस पहिले के ज्ञान में प्रसिद्ध होने रूप जो दोष पाता था वह तो वैसा का वैसा ही रहा । उसका निवारण तो हो नहीं सका, तथा ऐसी प्रतीति भी नहीं आती कि ईश्वर अनवस्था को रोक देता हो, और तीसरी बात यह भी हो चुकी है कि दूसरे या तीसरे नम्बर के ज्ञान में या तो त्रिविषय को ( अर्थज्ञान, अर्थ, और अपने आपको) जानने का प्रसंग पाता है या अदृष्ट को भी उस ज्ञान से ग्रहण होने का अतिप्रसंग प्राप्त होता है, इसलिये इस दूसरे नम्बर आदि ज्ञान का निषेध हो जाता है, अब तीसरा पक्ष-विषयान्तर में प्रवृत्ति होने से अनवस्था नहीं आती अर्थात् तृतीयज्ञान के बाद तो ज्ञानका या आत्मा का पदार्थ को जानने में व्यापार शुरु होता है, अतः चौथे पांचवें प्रादि ज्ञानों की उत्पत्ति होनेरूप अनवस्थादोष का प्रसंग नहीं पाता, सो ऐसा कहना भी गलत है । देखिये- धर्मीज्ञान अर्थज्ञान को जाननेवाला ज्ञान या उसके आगे का तीसरा ज्ञान जो है उसका विषय अर्थज्ञान है, उस विषय को छोड़कर उस विषय से अन्य साधनादि में ज्ञान की उत्पत्ति होना विषयान्तर संचार कहलाता है। ऐसे विषयान्तर में ज्ञानका-तृतीयज्ञान का संचार होना जरूरी नहीं है, मतलबयह है कि द्वितीयादि ज्ञान के होने पर बाह्य साधनादि का सन्निहित होना अवश्यंभावी नहीं है। क्योंकि ऐसी मान्यता में प्रसिद्धादि दोषों के अभाव होने की आपत्ति आती है, यदि उनका होना अवश्यंभावी मानते हो तो ऐसा देखा भी नहीं गया है, तथा-धर्मीज्ञानस्वरूप प्रथम द्वितीय ( या तृतीय ) ज्ञान की सन्निधि में साधनादि रहते हैं ऐसा मान भी लिया जावे तो भी जिसके जानने की इच्छा से वह द्वितीयादि ज्ञान उत्पन्न हुआ वह अर्थज्ञान का ज्ञान तो अभी तक अगृहीत है, अर्थात् चतुर्थादि ज्ञानके द्वारा वह गृहीत नहीं हुआ है, तो अन्य विषय के जानने की उसे इच्छा कैसे हो सकती है, अर्थात नहीं हो सकती है, और एक बात यह भी है कि जब धर्मीज्ञानरूप द्वितीयज्ञान है उसके साथ एकार्थरूप प्रात्मा में समवेतपने से रहनेवाला तीसराज्ञान है सो वह निकट है सो
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