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ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवाद:
ईश्वरस्तां निवारयतीत्यपि बालविलसितम् ; कृतकृत्यस्य तन्निवारणे प्रयोजनाभावात् । परोपकारः प्रयोजनमित्यसत् ; धर्मिग्रहणाभावस्य तदवस्थत्वप्रसङ्गात्, अप्रतीतेनिषिद्धत्वाच्चास्य ।
न च विषयान्तरसञ्चारात्त निवृत्तिः; विषयान्तरसञ्चारो हि धमिज्ञानविषयादन्यत्र साधना
ज्ञानों के अभाव में जगत का व्यवहार कैसे प्रवर्तित होगा? अर्थात् नहीं प्रवर्तित होगा, तुम कहो कि चतुर्थ आदि ज्ञान को पैदा करने की शक्ति का क्षय तो होता है किन्तु रूपज्ञान, साधनज्ञान आदि ज्ञानों को उत्पन्न करने की शक्ति तो रहती ही है उसका क्षय नहीं होता सो ऐसी बात नहीं बनती, क्योंकि एक साथ अनेक शक्तियां नहीं रहती हैं।
आप यौग जबर्दस्ती कह दो कि रूपज्ञान प्रादि को उत्पन्न करने की शक्ति रहती ही है, तब तो वे ही पहिले के अपसिद्धान्त होने प्रादि दोष आते हैं अर्थात् त्रिविषयवाला ज्ञान का हो जाना या स्वसंविदितता ज्ञान में बन जानी आदि दोष आते हैं । एक बात और सुनिये-पाप आत्मा को नित्य मानते हैं, जो नित्य होता है वह अपने कार्य करने में अन्य शक्ति आदि की अपेक्षा नहीं रखता है, इसी बात का खुलासा किया जाता है ।
यदि नित्य आत्मा में कम से शक्ति का होना माना जाय तो वह शक्ति किस कारण से होती है यह देखना पड़ेगा, यदि कहा जावे कि वह प्रात्मा से होती है तो ठीक नहीं, क्योंकि आत्मा तो अशक्त है अतः उससे शक्ति पैदा होना असंभव है, किसी अन्य शक्ति से वह शक्ति पैदा होती है ऐसा स्वीकार किया जाय तो अनवस्थाव्याघ्री खड़ी हो जाती है ।
योग-आनेवाली अनवस्था को ईश्वर रोक देता है ऐसा दूसरा पक्ष यदि स्वीकार करो-तो।
जैन-यह कहना बालक के कहने जैसा है, क्योंकि ईश्वर तो कृत-कृत्यकरने योग्य कार्य को कर चुका है, वह उस अनवस्था को रोकने में कुछ भी प्रयोजन नहीं रखता है।
योग-अन्य जीवों का उपकार करना यही उस कृतकृत्य ईश्वर का एक मात्र प्रयोजन है।
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