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प्रमेयकमलमार्तण्डे
स्वात्मनि विरोधः । क्रियावदात्मा तस्याः स्वात्मा इत्यप्यसङ्गतम्, क्रियावत्येव तस्याः प्रतीतेस्तत्र तद्विरोधासिद्ध:' अन्यथा सर्व क्रियारणां निराश्रयत्वं सकलद्रव्याणां चाऽक्रियत्वं स्यात् । न चैवम् ; कर्मस्थायास्तस्याः कर्मणि कर्तृ स्थायाश्च कर्तरि प्रतीयमानत्वात् । किञ्च, तत्रोत्पत्तिलक्षणा क्रिया विरुध्यते, परिस्यन्दात्मिका, धात्वर्थरूपा, ज्ञप्तिरूपा वा ? या त्पत्तिलक्षणा, सा विरुध्यताम् । न खलु 'ज्ञानमात्मानमुत्पादयति' इत्यभ्यनुजानीमः स्वसामग्री विशेषवशात्तदुत्पत्त्यभ्युपगमात् । नापि परिस्पन्दात्मिकासौ तत्र विरुध्यते, तस्याः द्रव्यवृत्तित्वेन ज्ञाने सत्त्वस्यैवासम्भवात् । अथ धात्वर्थरूपा; सा न
उसका स्वरूप ये कोई दो पदार्थ नहीं हैं, क्रियावान् आत्मा ही क्रिया का स्वात्मा कहलाता है-ऐसा द्वितीय पक्ष लिया जाय तो भी बनता नहीं, क्योंकि क्रियावान् में ही क्रिया की प्रतीति आती है, उसमें विरोध हो नहीं सकता, यदि क्रियावान् में ही क्रिया का विरोध माना जाये तो क्रियाओं में निराधारत्व होने का प्रसङ्ग प्राप्त होगा, और संपूर्ण द्रव्यों में नि:क्रियत्व-क्रिया रहितत्व होने का दोष उपस्थित होगा, लेकिन सभी द्रव्य क्रिया रहित हों ऐसी प्रतीति नहीं आती है । आपको हम बताते हैं जो क्रिया कर्म में होती है वह कर्म में प्रतीत होती है, जैसे- "देवदत्तः प्रोदनं पचति" देवदत्त चांवल को पकाता है, यहां पर पकने रूप क्रिया चांवल में हो रही है, अतः "प्रोदनं' ऐसे कर्म में द्वितीया विभक्ति जिसके लिये प्रयुक्त होती है उस वस्तु में होने वाली क्रिया को कर्मस्था क्रिया कहते हैं, कर्त्ता में होने वाली क्रिया कर्त्ता में प्रतीत होती है, जैसे-"देवदत्तो ग्रामं गच्छति" देवदत्त गांव को जाता है, इस वाक्य में गमनरूप क्रिया देवदत्त में हो रही है। अत: "देवदत्तः" ऐसी कर्तृ विभक्ति से कहे जाने वाली वस्तु में जो क्रिया दिखाई देती है उसे कर्तृस्थ क्रिया कहते हैं । हम जैन आपसे पूछते हैं कि-अपने में क्रिया का विरोध है ऐसा पाप ज्ञान के विषय में कह रहे हैं सो कौनसी क्रिया का ज्ञान में विरोध होता है ? सो कहिये, उत्पत्तिरूप क्रिया का विरोध है कि परिस्पंदरूप-हलन चलनरूप क्रिया का ज्ञान में विरोध है ? या धातु के अर्थरूप क्रिया का अथवा जानने रूप क्रिया का विरोध है ? प्रथम पक्ष-उत्पत्तिरूप क्रिया का विरोध है ऐसा कहो तो विरोध होने दो हमें क्या आपत्ति है । क्योंकि हम जैन ऐसा नहीं मानते हैं कि ज्ञान अपने को उत्पन्न करता है, ज्ञान तो अपनी सामग्री विशेष से अर्थात् ज्ञानावरणादि कर्म के क्षयोपशम या क्षय से उत्पन्न होता है ऐसा मानते हैं । परिस्पंदरूप क्रिया का ज्ञान में विरोध है ऐसा कहो तो कोई विपरीत बात नहीं, क्योंकि परिस्पंदरूप क्रिया तो द्रव्य में हुआ करती है, ऐसी क्रिया का तो ज्ञान में सत्त्व ही नहीं
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