SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 418
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवाद: ३६७ 'घटादिवत्सुखाद्यविदितस्वरूपं पूर्व मुत्पन्न पुनरिन्द्रियेण सम्बध्यते ततो ज्ञानं ग्रहणं च' इति लोके प्रतीतिः, प्रथममेवेष्टानिष्ट विषयानुभवानन्तरं स्वप्रकाशात्मनोऽस्योदयप्रतीतिः । स्वात्मनि क्रियाविरोधान्मिथ्येयं प्रतीतिः, न हि सुतीक्ष्णोपि खङ्ग प्रात्मानं छिनत्ति, सुशिक्षितोपि वा नटबटु: स्वं स्कन्धमारोहतीत्यप्यसमीचीनम् ; स्वात्मन्येव क्रियायाः प्रतीतेः । स्वात्मा हि क्रियायाः स्वरूपम्, क्रियावदात्मा वा ? यदि स्वरूपम्, कथं तस्यास्तत्र विरोधः स्वरूपस्याविरोधक त्वात् ? अन्यथा सर्वभावानां स्वरूपे विरोधानिस्स्वरूपत्वानुषङ्गः । विरोधस्य द्विष्ठत्वाच्च न क्रियाया: सन्निकर्ष हुए विना ही प्रत्यक्ष गोचर होता रहता है । एक विषय यहां सोचने का है कि जिस प्रकार घट पट वस्तु का स्वरूप पहिले अज्ञात रहता है और पीछे इन्द्रिय से संबद्ध होकर उसका ज्ञान पैदा होता है और वह ज्ञान उस घट पट आदि को ग्रहण करता है वैसे सुख आदिक पहिले अज्ञात रहते हों पीछे इन्द्रिय से संबद्ध होकर उनका ज्ञान पैदा होता हो और वह ज्ञान उन सुवादिकों को ग्रहगा करता हो ऐसा प्रतीत नहीं होता है, किन्तु पहिले ही इष्ट अनिष्ट विषयरूप अनुभव के अनन्तर मात्र जिसमें स्व का ही प्रकाशन हो रहा है ऐसा सुखादि संवेदन प्रकट होता है इसीसे स्पष्ट बात है कि सुख आदि के अनुभव होने में कोई सन्निकर्ष की प्रक्रिया नहीं हुई है । योग- अपने आप में क्रिया का विरोध होने से उपर्युक्त कही हुई प्रतीति मिथ्या है क्या तीक्ष्ण तलवार भी अपने आपको काटने की क्रिया कर सकती है ? अथवा-खूब अभ्यस्त चतुर नट अपने ही कंधे पर चढ़ने की क्रिया कर सकता है ? यदि नहीं, तो इसी प्रकार जानने रूप क्रिया अपने आप में नहीं होती अर्थात् ज्ञान अपने आपको नहीं जानता है। जैन-यह कथन गलत है, क्योंकि अपने आपमें क्रिया होतो हुई प्रतीति में आती है। हम जैन आपसे यह पूछते हैं कि "स्वात्मनि क्रिया"-"अपने में क्रिया” इस पद का क्या अर्थ है ? अपना आत्मा ही क्रिया का स्वरूप है, अथवा क्रियावान् आत्मा क्रिया का स्वरूप है ? मतलब-स्व शब्द का अर्थ आत्मा है कि प्रात्मीयार्थ है ? यदि क्रिया के अपने स्वरूप को स्वात्मा कहते हो तो ऐसे क्रिया के स्वरूप का अपने में क्यों विरोध होगा । अपना स्वरूप अपने से विरोधी नहीं रहता है, यदि अपने स्वरूप से हो अपना विरोध होने लगे तो सभी विश्व के पदार्थ निःस्वरूप-स्वरूप रहित हो जावेंगे । तथा एक विशेष यह भी है कि विरोध तो दो वस्तुओं में होता है, यहां पर क्रिया और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy