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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
ज्ञानान्तराद्वा ? स्वतश्चेदाद्यस्यापि स्वतः प्रत्यक्षत्वमस्तु | ज्ञानान्तराच्च त्सेवानवस्था । प्राद्यज्ञानाच े - दन्योन्याश्रयः - सिद्ध े ह्याद्यज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वे ततो द्वितीयस्य प्रत्यक्षतासिद्धि:, तत्सिद्धौ चाद्यस्येति ।
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किञ्च, अनयोर्ज्ञानयोर्महेश्वराद्भदे कथं तदीयत्वसिद्धिः समवायादेरग्रे दत्तोत्तरत्वात् ? तदाधेयत्वात्तत्त्वेप्युक्तम् । तदाधेयत्वं च तत्र समवेतत्वम्, तच्च केन प्रतीयते ? न तावदीश्वरेण,
जानने के लिये द्वितीय ज्ञान की कल्पना करना बेकार है । दूसरा ज्ञान यदि प्रत्यक्ष है तो यह बताओ कि वह स्वतः ही प्रत्यक्ष होता है अथवा श्रन्यज्ञान से प्रत्यक्ष होता है ? स्वतः प्रत्यक्ष है कहो तो पहला जो पदार्थों का जानने वाला ज्ञान है वह भी स्वतः प्रत्यक्ष हो जावे, क्या बाधा है, और आप यदि उस द्वितीय ज्ञान को भी अन्यज्ञान से प्रत्यक्ष होना स्वीकार करते हैं तब तो वही अनवस्था खड़ी होगी, इस दोष को टालने के लिये ईश्वर के उस दूसरे ज्ञान का प्रत्यक्ष होना प्रथम ज्ञान से मानते हो अर्थात् प्रथमज्ञान संपूर्ण पदार्थों को साक्षात् जानता है और उस ज्ञान को दूसरा ज्ञान साक्षात् जानता है अर्थात् उसे वह प्रत्यक्ष करता है, पुनश्च उस दूसरे ज्ञानको प्रथमज्ञान प्रत्यक्ष करता है, ऐसा कहेंगे तो अन्योन्याश्रय दोष पनपेगा, देखिये – प्रथमज्ञान प्रत्यक्ष है यह बात जब सिद्ध होगी तब उससे दूसरे ज्ञान की प्रत्यक्षता सिद्ध होगी, और दूसरे ज्ञान की प्रत्यक्षता सिद्ध होने पर प्रथम ज्ञान में प्रत्यक्षता- सिद्ध होगी, इस प्रकार दोनों ही प्रसिद्ध कहलायेंगे |
एक बात यह भी है कि वे दोनों ज्ञान महेश्वर से भिन्न हैं ऐसा श्राप मानते हैं, अतः ये ज्ञान ईश्वर के ही हैं इस प्रकार का नियम बनना शक्य नहीं है । समवाय सम्बन्ध से महेश्वर में ही ये ज्ञान संबद्ध हैं ऐसा कहना भी प्रयुक्त है, क्योंकि समवाय का तो अभी आगे खंडन होने वाला है, उस एक ईश्वर में ही उन दोनों ज्ञानों का श्राधेयपना है ऐसा कहना भी बेकार है, क्योंकि इस तदाधेयत्व के संबंध में अभी प्रभाकर के आत्मपरोक्षवाद का खंडन करते समय कह आये हैं कि तदाधेयत्व का निश्चय सर्वथा भेदपक्ष में बनता नहीं है, आप योग भी तदाधेयत्व का अर्थ यही करोगे कि उस महेश्वर में दोनों ज्ञानों का समवेत होना, किन्तु यह समवेतपना किसके द्वारा जाना जाता है ? ईश्वर के द्वारा कहो, तो ठीक नहीं, क्योंकि ईश्वर स्वयं को तथा दोनों ज्ञानों को ग्रहण नहीं करता है तो किस प्रकार वह बनावेगा कि यहां मुझ महेश्वर में ये दोनों ज्ञान समवेत हैं इत्यादि ?
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