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________________ ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादः ३५६ तस्यापि ज्ञानान्तरेण प्रत्यक्षत्वात् । ननु नानवस्था नित्यज्ञानद्वयस्येश्वरे सदा सम्भवात्, तौकेनार्थ. जातस्य द्वितीयेन पुनस्तज्ज्ञानस्य प्रतीते परज्ञानकल्पनया किञ्चित्प्रयोजनं तावतैवार्थसिद्ध रित्यप्यसमीचीनम् ; समानकालयावद्रव्यभाविसजातीयगुणद्वयस्यान्यत्रानुपलब्धरत्रापि तत्कल्पनाऽसम्भवात् । सम्भवे वा तद् द्वितीयज्ञानं प्रत्यक्षम्, अप्रत्यक्ष वा ? अप्रत्यक्षं चेत् ; कथं तेनाद्यज्ञानप्रत्यक्षतासम्भवः ? अप्रत्यक्षादप्यतस्तत्सम्भवे प्रथमज्ञानस्याऽप्रत्यक्षत्वेऽप्यर्थप्रत्यक्षतास्तु । प्रत्यक्षं चेत् ; स्वतः, जैन - यह कथन अयुक्त है, क्योंकि इस प्रकार के समान स्वभाववाले सजातीय दो गुण जो कि संपूर्ण रूप से अपने द्रव्य में व्याप्त होकर रहते हैं एक साथ एक ही वस्तु में उपलब्ध नहीं हो सकते हैं । इसलिये ईश्वर में ऐसे दो ज्ञान एक साथ होना शक्य नहीं है। विशेषार्थ-यौग ने महेश्वर में दो ज्ञानों की कल्पना की है, उन का कहना है कि एक ज्ञान तो अशेष पदार्थों को जानता है और दूसरा ज्ञान उस संपूर्ण वस्तुओं को जानने वाले ज्ञान को जानता है। ऐसी मान्यता में सैद्धान्तिक दोष आता है, कारण कि एक द्रव्य में दो सजातीय गुण एक साथ नहीं रहते हैं, "समानकालयावद्रव्यभाविसजातीय गुणद्वयस्य प्रभावात्" ऐसा यहां हेतु दिया है । इस हेतु के तीन विशेषण दिये हैं-(१) समान काल, (२) यावदुद्रव्यभावि, और (३) सजातीय, इन तीनों विशेषणों में से समानकाल विशेषण यदि नहीं होता तो क्रम से आत्मा में सुख दुःखरूप दो गुण उपलब्ध हुआ ही करते हैं, अत: दो गुण उपलब्ध नहीं होते इतना कहने मात्र से काम नहीं चलता, तथा "यावद्रव्यभावि" विशेषण न होवे तो द्रव्यांश में रहनेवाले धर्मों के साथ व्यभिचार होता है, सजातीय विशेषण न होवे तो एक आयु आदि द्रव्य में एक साथ होने वाले रूप, रस आदि के साथ दोष होता है । अतः सजातीय दो गुण एक साथ एक ही द्रव्य में नहीं रहते हैं ऐसा कहा गया है, इसलिये महेश्वर में दो ज्ञान एक साथ होते हैं ऐसा योग का कहना गलत ठहरता है। यदि परवादी यौग के मत की अपेक्षा मान भी लेवें कि महेश्वर में दो ज्ञान हैं तो भी प्रश्न होता है कि ज्ञान को जानने वाला वह दूसरा ज्ञान प्रत्यक्ष है कि अप्रत्यक्ष है ? यदि अप्रत्यक्ष माना जावे तो उस अप्रत्यक्षज्ञान से प्रथमज्ञान का प्रत्यक्ष होना कैसे संभव है, यदि अप्रत्यक्ष ऐसे द्वितीय ज्ञान से पहला ज्ञान प्रत्यक्ष हो जाता है तो पहिलाज्ञान भी स्वयं अप्रत्यक्ष रहकर पदार्थों को प्रत्यक्ष कर लेगा, फिर उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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