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________________ ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादका पूर्वपक्ष नैयायिक ज्ञान को दूसरे ज्ञान के द्वारा जानने योग्य मानते हैं, उनका कहना है कि ज्ञान अपने आपको नहीं जानता है, उसको जानने के लिये अन्य ज्ञान की जरूरत पड़ती है, इसका विवेचन इन्हीं के ग्रन्थ के आधार से यहां पर किया जाता है "विवादाध्यासिताः प्रत्ययाः प्रत्ययान्तरैव वेद्या: प्रत्ययत्वात्, ये ये प्रत्ययास्ते सर्वे प्रत्ययान्तरवेद्याः" । -विधि वि० न्यायकणि० पृ० २६७ ___ जितने भी विवाद ग्रस्त-विवक्षित ज्ञान हैं वे सब अन्यज्ञान से ही जाने जाते हैं, क्योंकि वे ज्ञानस्वरूप हैं, यदि ज्ञान अपने को जानने वाला माना जाये तो क्या २ दोष आते हैं सो प्रकट किया जाता है __ "तथा च विज्ञानस्य स्वसंवेदने तदेव तस्य कर्म क्रिया चेति विरुद्ध मापद्यत" यथोक्तम् - "अंगुल्यग्रे यथात्मानं नात्मना स्प्रष्टुमर्हति । स्वांशेन ज्ञानमप्येवं नात्मानं ज्ञातुमर्हति ।। १ ॥" यत् प्रत्ययत्वं वस्तुभूतमविरोधेन व्याप्तम् तदविरुद्धविरोधदर्शनात् स्वसंवेदनानिवर्तमानं प्रत्येयान्तरवेद्यत्वेन व्याप्यते, इति प्रतिबंधसिद्धिः । एवं प्रमेयत्वगुणत्वसत्वादयोऽपि प्रत्ययान्तरवेद्यत्वहेतवः प्रयोक्तव्याः । तथा च न स्वसंवेदनं विज्ञानमिति सिद्धम् । -विधि वि० न्यायकणि. पृ० २६७ ___ अर्थ-ज्ञान को यदि स्व का जानने वाला मानते हैं तो वही उसका कर्म और वही क्रिया होने का प्रसंग पाता है, जो कि विरुद्ध है, जिस प्रकार अंगुली स्वयं का स्पर्श नहीं कर सकती उसी प्रकार ज्ञान अपने आपको जानने के लिये समर्थ नहीं हो सकता, ज्ञान वस्तुस्वरूप तो अवश्य है किन्तु वह स्वसंविदित न होकर पर से वेद्य है। इसी तरह प्रमेयत्व, गुणत्व, सत्त्वादि अन्य से ही जाने जाते हैं-(वेद्य होते हैं) इस प्रकार ज्ञान स्व का वेदन नहीं करता है यह सिद्ध हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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